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LECTURE – 1
EVIDENCE
भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872

भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872, 1 सितम्बर 1872 को प्रवृत हुआ
इसमें कुल 11 अध्याय व 167 धाराएँ है।
यह स्टीफेन की देन है।
इसका सबसे बड़ा अध्याय, अध्याय दो में कुल 51 धाराएँ है व सबसे छोटे अध्याय 11 है जिसमें केवल 1 धारा है इसमें कुल तीन भाग है
इसका विस्तार समस्त भारत पर है निम्नलिखित पर नहीं है –
I. आर्मी एक्ट, नेवल डिसिप्लेन एक्ट, इंडियन नेवी, डिसिप्लेन एक्ट, एयर फोर्स एक्ट
II. शपथ पत्र
III. मध्यस्थों के समक्ष कार्यवाही
अध्याय 1 की धारा 3 में कुल 10 परिभाषाएं है –
1. न्यायालय – इसमें आते है –
I. न्यायधीश
II. मजिस्ट्रेट
III. साक्ष्य लेने के वैध रूप से प्राधिकृत व्यक्ति इसमें नहीं आते – मध्यस्थ
2. तथ्य
I. वस्तु, वस्तुओं की अवस्था, वस्तुओं का सम्बन्ध जो इन्द्रियों द्वारा बोधगम्य हो
II. मानसिक दशा जिसका भान किसी व्यक्ति को हो
3. सुसंगत – इसका अर्थ वह है जो धारा 5 से धारा 55 तक सुसंगत
4. विवाद्यक – विवाद्यक वह है –
I. जिस पर पक्षकारों में आपस में मतभेद हो
II. जिस पर उनके दायित्व व अधिकार निर्भर करे,
5. दस्तावेज – से ऐसा विषय अभिप्रेत है जो किसी पदार्थ पर अक्षरों, अंको, चिन्हों के साधन द्वारा या उनमें से एक से अधिक साधनों द्वारा अभिव्यक्त या वर्णित हो,
6. साक्ष्य –
I. कथन जिनके जान्चाधीन विषयों के सन्दर्भ में न्यायालय अपने समक्ष साक्षियों द्वारा किए जाने की अनुज्ञा देता है।
II. न्यायालय के निरिक्षण के लिये पेश की गई सभी दस्तावेजे जिसमें इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख भी शामिल है।
7. साबित – कोई तथ्य साबित कहा जाता है जब न्यायालय अपने समक्ष विषयों पर विचार करने के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इसका अस्तित्व है या प्रज्ञावान व्यक्ति को उस मामले में विश्वास करना चाहिए कि अस्तित्व है।
8. नासबित – जब न्यायालय यह विश्वास करे कि अस्तित्व नहीं है या प्रज्ञावान भी यह विश्वास करे की यह अस्तित्व नहीं है।
9. साबित नहीं हुआ – जब कोई तथ्य न तो साबित किया जाता है न नासबित तब साबित नहीं हुआ कहा जाता है।
1. प्रारूप – सर जेम्स स्टीफन
गवर्नर जनरल की सहमति – 15 मार्च 1872
प्रवर्तन में आने की तिथि – 1 सितम्बर 1872
2. प्रस्तावना :
I. प्रस्तावना अधिनियम का भाग नहीं होते है (भारत के संविधान की प्रस्तावना संविधान का भाग है)
II. यह समेकनकारी, परिभाषानकारी, संशोधनकारी है।
III. समेकनकारी होने के कारण यह अधिनियम साक्ष्य सम्बन्धी समस्त पूर्व विधियों को निरसित करता हैI धारा 2 में निदृष्ट विधियाँ निरसन के विरुद्ध संरक्षित की गयी थी। धारा 2 के साथ संलग्न अनुसूची के साथ पठनीय थी।
IV. धारा 2 तथा सूची निरसन अधि, 1938 OF 1938 द्वारा निरसित किये जा चुके है।
3. साक्ष्य अधि, की प्रकृति :
I. प्रक्रियात्मक विधि (RAMJAS VS SURENDRA NATH 1980)
II. LEX FORI (BAIN VS WHITE RAVAN AND FURNESS JUNCTION R/Y CO, 1850)
III. ऐसा साक्ष्य जो अधिनियम द्वारा आग्रह घोषित किया गया है उसे इस आधर पर भी ग्रहण नहीं किया जा सकता कि सत्य का पता लगाने के लिये उसका ग्रहण किया जाना आवश्यक है। (SHRI CHAND NANDI VS R. NANDI, 1941, PC)
4. अधिनियम का उद्देश्य :
I. बेहतर तथा समरूप नियम उपबन्ध कराना।
II. साक्ष्य की ग्रह्यता के सम्बन्ध में अस्थिरता तथा अनिश्चितता का निवारण करना।
5. प्रयोज्यता :
I. अधिनियम बृहत तथा व्यापक है, किन्तु यह सम्पूर्ण नहीं है।
II. समस्त न्यायिक कार्यवाहियों पर लागू है। कोर्ट मार्शल पर भी लागू है कुछ कोर्ट मार्शल अपवाद है। मध्यस्थं तथा शपथ पत्रों पर लागू नहीं है।
III. जम्मू तथा कश्मीर राज्य पर भी 31 अक्टूबर 2019 से लागू होगा।
IV. प्रक्रियात्मक विधि होते हुये भी इसका कुछ भाग सारवान प्रकृति का भी है।
V. धारा 115, 52 तथा 23 केवल सिविल मामलों में लागू है।
VI. धारा 29,105,111A,113B तथा 114”a” दाण्डिक मामलों में लागू है।
6. अधिनियम द्वारा व्यवहत विषय :
I. ऐसे तथ्य जिन्हें सिद्ध करना आवश्यक नहीं है
II. ऐसे तथ्यों जिन्हें सिद्ध किया का सकेगा।
III. सिद्ध करने से सम्बंधित नियम।
IV. तथ्यों को सिद्ध करने का ढंग
V. सिद्ध भरिता विषयक नियम
VI. सक्षम साक्षी
VII. सक्ष्यिक बल का अवधारण
VIII. सुसंगति तथा ग्राह्यता
7. अधिनियम की योजना :
I. अधिनियम तीन भागों में विभक्त है। तीन भागों में कुल मिलाकर 11 अध्याय है।
II. भाग एक (धारा 1 से 55)_________तथ्यों की सुसंगति
III. भाग दो (धारा 56-100)_________सबुत के बारे में
IV. भाग तीन (धारा 101 – 167)_________साक्ष्यों का प्रस्तुतिकरण तथा प्रभाव
V. तीनों भागों के अतिरिक्त अधि, में एक अनुसूची भी थी यह अनुसूची निरसन अधिनियम 1938 द्वारा निरसित की जा चुकि है।

शपथ पत्र :- साधारण खण्ड अधिनियम (GENERAL CLAUSES ACT) की धारा – 3 के खण्ड (3) के अनुसार शपथ पत्र को परिभाषित किया गया है शपथ पत्र के अन्तर्गत ऐसे व्यक्तियों की दशा में जो शपथ होने के स्थान पर प्रतिज्ञान या घोषणा करने के लिये विधि द्वारा अनुज्ञात है प्रतिज्ञान या घोषणा को शपथ पत्र कहा जाता है



FRACTUM PROBANTIA
सुसंगत तथ्य :- धारा 3 का पैरा (3) में :- सामान्य भाषा में सुसंगत तथ्य वे तथ्य होते है जो स्वयं विवाद्यक तथ्य नहीं होते है परन्तु विवाद्यक तथ्य से इस प्रकार से जुड़े होते है कि उसका विवाद्यक तथ्य सम्भाव्य अथवा अधिसम्भाव्य हो जाते है। उसे सुसंगत कहा जाता है।
विवाद्यक तथ्य :- धारा 3 का पैरा (4) :- विवाद्यक तथ्य से अभिप्रेत है और उसके अन्तर्गत आता है –
कोई ऐसा भी तथ्य –

दस्तावेज :- धारा (3) का पैरा (5)
दस्तावेज से कोई ऐसा विषय अभिप्रेत है –
(1) जिसको किसी
(i) पदार्थ पर
(ii) अक्षरों पर
(iii) अंकों या
(iv) चिन्हों के साधन द्वारा
(v) उनमें से एक से अधिक साधनों द्वारा
(2) अभिव्यक्त या
(3) वर्णित किया गया है।
जो उस विषय के अभिलेखन के उद्देश्य से उपयोग किए जाने का
(i) आशयित हो या
(ii) उपयोग किया जा सके।
साक्ष्य :- धारा 3 पैरा (6)
लैटिन भाषा के “एडिवेयर” शब्द से बनाया गया है जिसका अर्थ है स्पष्ट करना या साफ – साफ करना।
यह अपूर्ण है इसको पूर्ण करने के लिये “साबित करना” की परिभाषा पढनी पड़ेगी।
“साक्ष्य” – “साक्ष्य” शब्द से अभिप्रेत है, और उसके अन्तर्गत आते है –
(1) वे सभी कथन (बयान) जिनके जांचाधीन तथ्य के विषयों के सम्बन्ध में न्यायालय अपने सामने साक्षियों द्वारा किये जाने की अनुज्ञा देता है या अपेक्षा करता है ;
ऐसे कथन मौखिक साक्ष्य कहलाते है ;
(2) [न्यायालय के निरिक्षण के लिये पेश की गयी सब दस्तावेज, जिनमें इलेक्ट्रोनिक अभिलेख शामिल है]
ऐसी दस्तावेज़े दस्तावेजी साक्ष्य कहलाती है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872
PRELIMINARY QUESTION
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रवर्तन की तिथि है –
(a) 1 जुलाई 1872
(b) 1 सितम्बर 1872
(c) 1 अक्टूबर 1932
(d) इनमें से कोई नहीं
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम निम्नलिखित में से किन पर लागू नहीं होती –
(a) न्यायिक कार्यवाही
(b) सेना न्यायालय
(c) मध्यस्थ
(d) उपरोक्त सभी
- अपराधिक संशोधन अधिनियम 2013 के द्वारा साक्ष्य अधिनियम में निम्नलिखित में से किसमें संशोधन किया गया है –
(a) धारा 53A, 114A, 119, 146
(b) धारा 114A, 118, 120, 154
(c) धारा 119, 123, 125, 130
(d) धारा 146, 164, 140, 111
- धारा 3 के निर्वचन खण्ड में कितने शब्दों को परिभाषित किया गया है –
(a) 5
(b) 7
(c) 9
(d) 10
- उपहासांकन निम्नलिखित में से साक्ष्य है –
(a) मौखिक साक्ष्य
(b) दस्तावेजी साक्ष्य
(c) मौखिक एवं दस्तावेजी साक्ष्य
(d) इनमें से कोई नहीं
- तथ्य को भौतिक एवं मानसिक तथ्य में विभक्त किया गया है –
(a) बेन्थम द्वारा
(b) कर्णवालिस द्वारा
(c) डैनिंग द्वारा
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं
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LECTURE – 2
EVIDENCE
उपधारणा (PRESUMPTION)
MAINS -QUESTIONS
- उपधारणा से आप क्या समझते है ? उपधारणा कर सकेगा एवं उपधारणा करेगा में अंतर स्पष्ट करे।
- निश्चयाक साक्ष्य से आप क्या समझते है ? साक्ष्य अधिनियम में निश्चायक साक्ष्य के सन्दर्भ में विभिन्न प्रावधानों का उल्लेख करे।
- संक्षिप्त टिप्पणी लिखे –
(a) साबित, नासाबित, साबित नहीं हुआ
(b) विवाधक तथ्य
(c) दस्तावेज
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LECTURE – 2
EVIDENCE
उपधारणा (PRESUMPTION)
उपधारणा का आधार धारा – 114 में मिलेगा।
अर्थ अनुमान लगाना या निष्कर्ष निकालना।


धारा 5 की आवश्यक शर्ते :-
(i) किसी वाद या कार्यवाही का होना
(ii) विवाधक तथ्यों एवं सुसगंत तथ्यों का साक्ष्य दिया जाना
(iii) किन्ही अन्यों का साक्ष्य नहीं दिया जायेगा
कनिघम महोदय ने यह कहा है कि धारा 5 का सबसे प्रबल शब्द धारा 5 के अन्तिम 4 शब्दों पर बल देती है किसी अन्य का नहीं।
दृष्टान्त :- न्यायालय के सामने यह प्रश्न है कि ख की मृत्यु कारित करने के आशय से क ने लाठी से मार कर हत्या की है।
इसमें मामले में निम्नलिखित प्रश्न विवाधक तथ्य होते है –
(i) क ने ख को लाठी मारी
(ii) ख की मृत्यु कारित होना
(iii) क का आशय
उपरोक्त तीनों विवाधक तथ्यों का साक्ष्य दिया जा सकेगा और उन्हें साबित करने वाले उनसे सम्बद्ध रखने वाले सुसंगत तथ्यों का साक्ष्य दिया जायेगा।
धारा 5 को साक्ष्य अधिनियम की आधारशिला कही जाती है।
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LECTURE – 2
PRE QUESTIONS
- उपधारणा कर सकेगा, निम्नलिखित में से किस सूक्ति पर आधारित है –
(a) प्रिजम्टीयो होमिनिस
(b) प्रिजम्टीयो लुईस
(c) प्रिजम्टीयो रुईस
(d) इनमें से कोई नहीं
- निश्चायक सबूत के सन्दर्भ में प्रावधान किया गया है –
(a) धारा 4
(b) धारा 4, पैरा 2
(c) धारा 4, पैरा 3
(d) धारा 4, पैरा 4
- उपधारणा कर सकेगा, को जाना जाता है –
(a) खंडनीय उपधारणा
(b) अखंडनीय उपधारणा
(c) निश्चयाक उपधारणा
(d) उपरोक्त सभी
- उपधारणा करेगा, का प्रभाव निम्नलिखित में से हो सकता है –
(a) खंडनीय
(b) अखंडनीय
(c) निश्चायक
(d) खंडनीय एवं अखंडनीय (निश्चायक सबूत)
- निश्चायक सबूत के सन्दर्भ में प्रावधान किया गया है –
(a) धारा 41, 42, 113, 113A
(b) धारा 41, 112, 113
(c) धारा 41, 112, 107
(d) धारा 41, 112, 108
- उपधारणा कर सकेगा से सम्बन्धित प्रावधान है –
(a) धारा 86, 87, 88, 114
(b) धारा 86, 87, 88, 112
(c) धारा 86, 87, 90, 113
(d) धारा 86, 41, 115, 116
- उपधारणा करेगा के सन्दर्भ में प्रावधान दिया गया है –
(a) धारा 41, 115, 117, 116
(b) धारा 79, 80, 81, 113
(c) धारा 86, 87, 88, 90
(d) धारा 79, 80, 81, 83
- निम्नलिखित में से किस विधिशास्त्री ने यह कहा था कि धारा 5 के अंतिम चार शब्द “किन्ही अन्यों पर नहीं” पर बल प्रदान करती है –1`
(a) सर जेम्स स्टीफेन
(b) सर कनिघम
(c) सर डेनिंग
(d)इनमें से कोई नहीं
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LECTURE – 3
EVIDENCE
एक संव्यवहार का भाग निर्मित करने वाले तथ्य
MAINS -QUESTIONS
- RES GESTAE से आप क्या समझते है?
- किसी घटना के घटित होने के पूर्व अथवा पश्चात् वर्ती आचरण के सन्दर्भ में साक्ष्य अधिनियम के प्रावधानों का उल्लेख करे।
- A को पीट कर A की हत्या करने का B अभियुक्त है। A की पीटाई के समय X, Y, Z के द्वारा जो कहा गया। क्या वह कथन सुसंगत है?
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LECTURE – 3
EVIDENCE
एक संव्यवहार का भाग निर्मित करने वाले तथ्य
सामान्य :
1. केवल विवाधक तथ्य सुसंगत तथ्यों को सिद्ध किया जा सकता है अन्य किसी तथ्यों को नहीं धारा 5 लोक नीति पर आधारित है धारा 136 का पैरा 1, धारा 5 का वैधानिक अनुप्रयोग है।
2. ऐसा तथ्य जो स्वयं विवाधक नहीं है किन्तु जो विवाद तथ्य से इस प्रकार ससन्क्त है की वे एक ही संव्यवहार का भाग निर्मित करते हो सुसंगत होगा इस सिद्धान्त को धारा – 6 में अंगीकृत किया गया है आंग्ल विधि में इस नियम को रेस जेस्टे का सिद्धान्त कहा जाता है।
3. धारा – 6 अनुश्रुत साक्ष्य के अपवर्जन के नियम का एक अपवाद है
धारा 6 के आवश्यक तत्व
1. धारा 6 के उपबन्ध :
“जो तथ्य विवाध न होते हुये भी किसी विवाधक तथ्य से उस प्रकार सशक्त है कि वे एक ही संव्यवहार के भाग है, वे तथ्य सुसंगत है, चाहे वे उसी समय और स्थान पर या विभिन्न समयों और स्थानों पर घटित हुये हो।”
2. संव्यवहार :
I. संव्यवहार शब्द धारा 6 में उपर्युक्त महत्वपूर्ण शब्द है, किन्तु इसे अधिनियम में परिभाषित या स्पष्टीकृत नहीं किया गया है। अत: संव्यवहार शब्द को उसके सामान्य अर्थ में लिया जायेगा।
II. स्टीफन के अनुसार: “संव्यवहार परस्पर सम्बन्ध तथ्यों का एक ऐसा समूह है जिसे संविदा अपकार या जाचाधीन अन्य कोई विषय के रूप सन्दर्भित किया जा सकता है
3. निर्णय
I. आर बनाम बेन्डिंगफिल्ड 1879
II. रटन बनाम क्वीन 1971
1. आर. बनाम बेन्डिंगफिल्ड धारित : कहे गये शब्द उत्तरवर्ती कथन के रूप में नहीं होंगे यदि वह उत्तरवर्ती कथन शब्द है तो वे भिन्न संव्यवहार के भाग के रूप में सुसंगत नहीं होंगे।
2. रटन बनाम क्वीन 1971 धारित : कहे गये शब्द उसी संव्यवहार का भाग है या नहीं यह पाना प्राय: कठिन होता है बाह्य विषय विचारणीय तो है किन्तु निर्णायक नहीं उत्तरवर्ती शब्द तारतम्यता पूर्ण तथा अपृथककृत होने चाहिए ताकि हितबद्ध व्यक्तियों द्वारा सिखाये पढाये जाने की संभावना न रह जाय।
आलोचना :
1. प्रो. स्टोन के अनुसार –
“कोई भी सक्ष्यिक समस्या इतना भ्रामक तथा संदिग्ध नहीं है जिनती कि रेस जेस्टे का सिद्धान्त”
2. प्रो. बिगमोर के अनुसार –
“रेस जेस्टे का सिद्धान्त न केवल व्यर्थ है बल्कि क्षतिकारी भी। व्यर्थ इसलिए क्योंकि इस सिद्धान्त का प्रत्येक भाग तथ्यों की सुसंगति किसी न किसी नियम द्वारा आच्छादित है।
RATTEN VS. REGINAM 1971,
एक स्त्री ने गोली लगने से थोड़ी देर पूर्व टेलीफोन मिलाया और घबराहट भरी आवाज में बदहोशी की हालत में) ऑपरेटर से कहा कि पुलिस को मिलाओ। ऑपरेटर अभी कुछ भी न कर पायी थी उस स्त्री ने अचानक अपना पता बोल दिया और बात खत्म हो गयी। पांच मिनट के अंदर उस पते पर पुलिस पहुँच गयी और एक स्त्री का शव पाया। उसके पति पर उसकी हत्या का आरोप था और यह निर्णीत किया गया था कि टेलीफोन करना और उससे जो शब्द बोले गये थे। दोनों ही उस घटना के भाग थे जिसके अंतर्गत बाद में उसे गोली लगी। लार्ड विल्बरफोर्स ने कहा – इस बात का पर्याप्त साक्ष्य था कि जो कथन टेलीफोन पर मृतक स्त्री ने किया था और उसके तुरंत बाद गोली मारने की होने वाली घटना में बहुत ही नजदीकी और आत्मीय संबंध था। उसके समय तथा स्थान घनिष्ट रूप से सम्बन्धित थे। जिस तरह से वह बात स्त्री ने टेलीफोन पर कही थी कि मुझे पुलिस से मिला दो जिस घबराहट से उसका आवाज सुनाई पड़ी स्वभाविक रूप से यह स्पष्ट होता था कि मृतक ने वे शब्द ऐसे समय बोले जबकि होने वाली घटना इतना जोर पकड़ चुकी थी कि स्त्री विवश थी। उसकी बात ही स्पष्ट करती थी कि उसका कथन स्वाभाविक था।
धारा 7 – वे तथ्य जो विवाधक तथ्यों के प्रसंग, हेतुक या परिणाम है।
वे तथ्य सुसंगत है सुसंगत तथ्यों के या विवाधक तथ्यों के


उपरोक्त धारा 7 एवं धारा 8 धारा 6 पर विस्तार है इस प्रकार इससे उन परिस्थितियों के सन्दर्भ मंं निष्कर्ष निकाला जाता है, जो किसी विवाधक एवं सुसंगत तथ्यों के कारण एवं प्रभाव के सिद्धांत का अनुसरण करती है।
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PRE QUESTIONS
- RES GESTAE का सिद्धांत निम्नलिखित में से अभिव्यक्त किया गया है –
(a) धारा 5
(b) धारा 6
(c) धारा 7
(d) धारा 8
- टेप किया गया वार्तालाप धारा 6, 7, एवं 8 के अंतर्गत सुसंगत होता है ‘निर्णीत किया गया था’
(a) कश्मीरा सिंह बनाम स्टेट ऑफ यूपी
(b) आर.एम. मलकानी बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र
(c) आर. बनाम फोस्टर
(d) रटन बनाम क्वीन
- आचरण शब्द को स्पष्ट किया गया है –
(a) धारा 7 के अंतर्गत
(b) धारा 8 स्पष्टीकरण 1
(c) धारा 8 स्पष्टीकरण 2
(d) इनमें से कोई नहीं
- 4. विष द्वारा ख की हत्या करने के लिए क का विचारण किया जाता है इस मामले में यह तथ्य कि ख की मृत्यु के पूर्व क ने ख को दिए गये विष के जैसा विष उपाप्त किया था
(a) यह तथ्य विसंगत है
(b) यह तथ्य सुसंगत है
(c) तथ्यों कि सुसंगति एवं विसंगति पक्षकारों पर निर्भर है
(d) इनमें से कोई नहीं
- RES GESTAE सिद्धांत पर महत्वपूर्ण वाद है –
(a) रटन बनाम क्वीन
(b) आर. बनाम फोस्टर
(c) आर. बनाम बेन्डिंगफिल्ड
(d) उपरोक्त सभी
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LECTURE – 4
EVIDENCE
स्पष्टीकारक तथा पुरःस्थापक (परिचायक) तथ्य (धारा 9)
MAINS -QUESTIONS
- शिनाख्त की कार्यवाही से आप क्या समझते है? यह किसके द्वारा की जाती है।
- उन तथ्यों का विश्लेषण करे जो सुसंगत तथ्यों के स्पष्टीकरण या पुरःस्थापन के लिए आवश्यक तथ्य के रूप में जाना जाता है।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत पक्षकारों के बीच संबंध दर्शित करने वाले तथ्यों की सुसंगति को समझाइए।
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LECTURE – 4
EVIDENCE
स्पष्टीकारक तथा पुरःस्थापक (परिचायक) तथ्य (धारा 9)
धारा 9. सुसंगत तथ्यों के स्पष्टीकरण या पुरःस्थापन के लिए आवश्यक तथ्य :- वे तथ्य, जो विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य के स्पष्टीकरण या पुरःस्थापन के लिए आवश्यक हैं अथवा जो किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य द्वारा इंगित अनुमान का समर्थन या खण्डन करते हैं, अथवा जो किसी व्यक्ति या वस्तु को, जिनकी अनन्यता सुसंगत हो, अनन्यता (पहचान) स्थापित करते हैं अथवा वह समय या स्थान स्थिर करते हैं जब या जहाँ कोई विवाद्य तथ्य या सुसंगत तथ्य घटित हुआ अथवा जो उन पक्षकारों का सम्बन्ध दर्शित करते हैं जिनके द्वारा ऐसे किसी तथ्य का संव्यवहार किया गया था, वहाँ तक सुसंगत हैं जहाँ तक वे उस प्रयोजन के लिए आवश्यक हों।
यह धारा निम्नलिखित 6 प्रकार के तथ्यों को सुसंगत बनाती है-
1. परिचयात्मक तथ्य – वे तथ्य जो विवाद्य तथ्य या सुसंगत तथ्य को पेश करने या उनका परिचय कराने के लिए आवश्यक हैं।
2. स्पष्टीकरण तथ्य – वे तथ्य विवाद्य तथ्य या सुसंगत तथ्य के स्पष्टीकरण या उनको स्पष्ट करने के लिए आवश्यक है।
3. सम्पोषक अथवा खण्डनात्मक तथ्य – वे तथ्य, जो किसी विवाद्य तथ्य या सुसंगत तथ्य द्वारा सुझाये गये अनुमान की पुष्टि करते हैं या खण्डन करते हैं।
4. व्यक्ति या वस्तु की पहचान स्थापित करने वाले तथ्य – वे तथ्य, जो उस व्यक्ति या वस्तु की पहचान करते हैं जिनकी पहचान सुसंगत है, या
5. विवाद्यक तथ्य का समय या स्थान स्थिर करने वाले तथ्य – वे तथ्य, जो उस समय या स्थान को निश्चित करते हैं, जब या जहाँ कोई विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य घटित हुआ, अथवा
6. संव्यवहार से पक्षकारों का सम्बन्ध दर्शित करने वाले तथ्य – वे तथ्य, जो उन व्यक्तियों का सम्बन्ध दर्शित करते हैं, जिनके द्वारा कोई ऐसा तथ्य अस्तित्व मे लाया गया हो।
शिनाख्त कार्यवाही का महत्व एवं उद्देश्य
किसी अपराध के अन्वेषण के दौरान पुलिस को इस उद्देश्य से कार्यवाही शिनाख्त करना पड़ता है कि जिससे साक्षी उस सम्पत्ति की पहचान कर सके जो कि अपराध की विषय-वस्तु है या उन व्यक्तियों की पहचान कर सके जो अपराध से सम्बन्धित होते हैं। इस प्रकार उनका दोहरा उद्देश्य होता है। प्रथम तो अन्वेषण अधिकारी को संतुष्ट करना कि कुछ निश्चित व्यक्ति जिन्हें साक्षी पहले से नहीं जानते थे अपराध करने में था या एक विशेष सम्पत्ति अपराध का विषय थी। इसका उद्देश्य सम्बद्ध साक्षी द्वारा न्यायालय में दिये गये साक्ष्य की सम्पुष्टि भी करना होता है।
अभियुक्त की पहचान का तरीका
परेड का उद्देश्य एक ऐसे अपरिचित व्यक्ति को जिसे साक्षी ने घटना के समय देखा था, उसे कई व्यक्तियों के साथ एक लाइन में खड़ा करके उनके बीच में से साक्षी के पहचानने की क्षमता के प्रश्न पर उसकी सत्यावादिता को परखना है।
अशर्फी बनाम राज्य ए. आई. आर. 1961 इलाहाबाद
इस वाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अनुसार पहचान के साक्ष्य को स्वीकार करने के पूर्व निम्नलिखित 12 प्रश्नों के उत्तरों से संतुष्ट हो जाना चाहिये-
1. क्या पहचान कर्त्ता अभियुक्त को पहले से जानता था।
2. क्या साक्षी ने अभियुक्त को घटना और शिनाख्त कार्यवाही के बीच में देखा।
3. क्या कार्यवाही शिनाख्त कराने में अनावश्यक देरी हुई।
4. क्या मजिस्ट्रेट ने इस बात को सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त सावधानी बरती कि शिनाख्त कार्यवाही ठीक है।
5. घटना के समय प्रकाश की क्या स्थिति थी।
<मुल्ला बनाम स्टेट ऑफ यू. पी. ए. आई. आर. 2010 एस. सी. :- इस मामले में साक्षियों की पिटाई करते समय अभियुक्त टॉर्च का प्रकाश डाल रहे थे। साक्षियों में से एक को किसी पूर्व की घटना के कारण अपहृत करके जंगल में ले जाया गया था। अभियुक्तों के साथ उसका सम्बन्ध अन्यों की तुलना में काफी लम्बे समय का था। उसने अभियुक्त का नाम ठीक-ठीक बतलाया था। अभिनिर्धारित हुआ कि घटना के समय उचित प्रकाश की कमी के आधार पर शिनाख्त साक्ष्य को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता था।
6. पहचान कर्त्ता की नेत्र दृष्टि की क्या दशा थी और साक्षी अभियुक्त से कितने फासले पर था
7. साक्षी की मानसिक दशा क्या थी।
8. पहचानकर्त्ता को अभियुक्त को देखने का क्या अवसर मिला
9. क्या अभियुक्त के स्वरूप या आचरण में कोई विशिष्ट चीज थी जिससे पहचानकर्त्ता प्रभावित हुआ।
10. उसी अपराध के सम्बन्ध में की गई अन्य शिनाख्त कार्यवाही में पहचानकर्ता कितना ठीक अथवा निष्पक्ष था।
11. शिनाख्त कार्यवाही में पहचानकर्ता द्वारा क्या गलतियाँ की गई।
12. क्या पहचान के साक्ष्य की मात्र पर्याप्त थी।
शिनाख्त-परेड किसके द्वारा ली जानी चाहिए
रामकिशन बनाम बम्बई प्रदेश ए. आई. आर. 1953 बिलासपुर इस मामले में न्यायालय में कहा कि कोई भी व्यक्ति परीक्षण-शिनाख्त कर सकता है। इसी सिद्धान्त के आधार पर उक्त मुकदमे में पंचों ने जो शिनाख्त परीक्षण-कार्यवाही की थी, उसको न्यायालय ने स्वीकार कर लिया था। किन्तु स्पष्ट कारणों से यह कदाचित ही प्राइवेट व्यक्तियों के लिये उपयुक्त होगा कि वे किसी प्रकार भी अन्वेषण की कार्यवाही में अपना हाथ डालें। इसी कारण उत्तर प्रदेश में यह व्यापक पद्धति है कि शिनाख्त की कार्यवाही मजिस्ट्रेट द्वारा की जाए. यह पद्धति स्वस्थ कारणों पर आधारित है। मजिस्ट्रेट प्रक्रिया सम्बन्धी बातों का अच्छी तरह ज्ञान रखते हैं और उस पर अधिक भरोसा किया जा सकता है और वे बाहर के प्रभाव से कम प्रभावित हो सकते है, वे अधिक सुगमता से प्राप्त होते हैं और वे उन पुलिस और जेल के कर्मचारियों पर अधिक प्राधिकार के कार्य कर सकते है जो इन प्रदर्शनों का आयोजन करते हैं, उनका अनुभव भी मूल्यवान होता है और इन्हीं कारणों से उत्तर प्रदेशीय सरकार ने मैनुअल ऑफ गवर्नमेंट आर्डर, 1954 के पैरा 496 में अभिकथित किया है कि शिनाख्त का प्रदर्शन अनुभवी मजिस्ट्रेटों द्वारा कराया जाए और जरूरी है कि वे कम से कम 6 शिनाख्त प्रदर्शनों में प्रशिक्षण हेतु उपस्थित हों प्रथम इसके कि वे किसी भी सहायता के स्वयं प्रदर्शन का आयोजन करें।
शिनाख्त-परेड मजिस्ट्रेट द्वारा ली जानी चाहिये एंव ऐसी परेड के समय पुलिस को वहाँ उपस्थित नहीं रहने देना चाहिए। परेड के समय अभियुक्त अभियोजन-पक्ष के अधिवक्ता उपस्थित रह सकते हैं।
मजिस्ट्रेट द्वारा किसी अभियुक्त को शिनाख्त-परेड में हाजिर होने के लिए दिया जाने वाला निर्देश संविधान के अनुच्छेद 20(3) का अतिक्रमण नहीं करता है।
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Lecture-4
PRELIMINARY QUESTION
- टेस्ट आइडेन्टीफिकेशन परेड साक्ष्य अधिनियम कि किस धारा के अन्तर्गत सुसंगत है?
(a) धारा 7
(b) धारा 8
(c) धारा 9
(d) धारा 10
- टेस्ट आइडेन्टीफिकेशन परेड कौन कर सकता है?
(a) मजिस्ट्रेट
(b) कोई भी व्यक्ति
(c) (a) एवमं (b) दोनों सही है
(d) उपरोक्त सारे गलत हैं
- शिनाख्त कार्यवाही पर महत्वपूर्ण वाद है?
(a) अशर्फी बनाम राज्य
(b) मुल्ला बनाम स्टेट यू.पी.
(c) रामकिशन बनाम बम्बई प्रदेश
(d) उपरोक्त सभी
- सुसंगत तथ्यों के स्पष्टीकरण या पुरःस्थापन के लिए आवश्यक तथ्य क्या है?
(a) व्यक्ति या वस्तु की पहचान स्थापित करने वाले तथ्य
(b) विवाद्य तथ्य का समय स्थिर करने वाले तथ्य
(c) संव्यवहार से पक्षकारों का सम्बन्ध दर्शित करने वाले तथ्य
(d) उपरोक्त सभी
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LECTURE – 5
EVIDENCE
अन्यत्र अभिवाक्
MAINS -QUESTIONS
- अन्यत्र उपस्थिति के अभिवाक् को समझाइए।
- A पर B की हत्या का आरोप है। B की हत्या पटना में 5 जनवरी को 3 बजे (3:00 PM) को हुई थी। क्या A इस बात का अभिवाक् कर सकता है कि 5 जनवरी को 2:30 PM को मुबंई मे था।
- A पर B की हत्या का आरोप है। B की हत्या पटना में 5 जनवरी को 3 बजे (3:00 PM) को हुई थी। क्या A इस बात का अभिवाक् कर सकता है कि 5 जनवरी को 2:30 PM को मुबंई मे था।
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LECTURE – 5
EVIDENCE
अन्यत्र अभिवाक्
असंगत तथ्य तथा तथ्यों को अधिसम्भाव्य बनाने वाले तथ्य (धारा 11)
धारा 11. वे तथ्य जो अन्यथा सुसंगत नहीं है कब सुसंगत हैं (When facts not otherwise relevant become relevant)- वे तथ्य, जो अन्यथा सुसंगत नहीं हैं, सुसंगत हैं-
(1) यदि वे किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य से असंगत हैं,
(2) यदि वे स्वयमेव या अन्य तथ्यों के संसर्ग में किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य का अस्तित्व या अनस्तित्व अत्यन्त अधिसम्भाव्य या अनधिसम्भाव्य बनाते हैं।
ऐलीबाई का अभिवचन
इस धारा का प्रथम नियम यह है कि वे तथ्य भी जो अन्यथा सुसंगत नहीं है, सुसंगत हो जाएंगे यदि वे किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य से असंगत हों। इसका वाद के तथ्यों से असंगत होना ही एक ऐसा गुण है जो उन्हें सुसंगत बनाता है। इस धारा के अन्तर्गत कोई अभियुक्त अन्यत्र उपस्थित होने का अभिवाक (Plea of alibi) कर सकता है कि वह अपराध के समय किसी अन्य स्थान पर उपस्थित था और इसलिए उसके द्वारा इस अपराध को करना असम्भव था। जैसे कि किसी डॉक्टर या वकील से मिलने गया हो और उसने अपनी व्यावसायिक डायरी में उसका नाम लिखा हो, या उसने मुंबई से किसी व्यक्ति को पत्र लिखा हो या यह कि उसने
मुंबई में कोई चेक भुनवाया हो। घटनास्थल से दूर होने का बचाव उसे ही साबित करना होता है जो ऐसे बचाव का सहारा लेता है।
सखाराम बनाम स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश, ए. आई. आर. 1992 एस. सी. 758
उच्चतम न्यायालय ने प्रतिपादित किया है कि “अपराध के स्थल से अभियुक्त की अनुपस्थिति के बचाव का यह आधार तत्व है कि अभियुक्त स्थान से घटना के समय इतना दूर हो कि उसका घटनास्थल पर हो सकना भौतिक रूप से असम्भव हो। इस सिद्धान्त को तथ्यों पर लागू करते हुये यह पाया गया कि अनुपस्थिति का बचाव साबित नहीं हुआ था क्योंकि अभियुक्त की फैक्टरी जहाँ वह साढ़े आठ बजे तक था वह घटनास्थल से इतनी निकट थी कि 9 बजे तक अभियुक्त वहाँ पहुँच सकता था। यदि किसी अभियुक्त का एलिबाई (Alibi) का बचाव असफल हो जाये तो इससे यह उपधारणा नहीं होती कि वह दोषी है। उसे दोषी साबित करने का भार अभियोजन पर बना रहेगा।
मन या शरीर की दशा अथवा शारीरिक संवेदना (धारा 14)
मन की कोई भी दशा, जैसे आशय, ज्ञान, सदभाव, उपेक्षा, उतावलापन, किसी विशिष्ट व्यक्ति के प्रति वैमनस्य या सदिच्छा दर्शित करने वाले अथवा शरीर की या शारीरिक संवेदना की किसी दशा का अस्तित्व दर्शित करने वाले तथ्य तब सुसंगत हैं जबकि ऐसी मन की या शरीर की या शारीरिक संवेदना की किसी ऐसी दशा का अस्तित्व विवाद्य या सुसंगत है।
स्पष्टीकरण 1- जो तथ्य इस नाते सुसंगत है कि वह मन की सुसंगत दशा के अस्तिव को दर्शित करता है, उससे यह दर्शित होना ही चाहिए कि मन की वह दशा साधारणतः नहीं अपितु प्रश्नगत विशिष्ट विषय के बारे में, अस्तित्व में है।
स्पष्टीकरण 2- किन्तु जबकि किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के विचारण में इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत उस अभियुक्त द्वारा किसी अपराध का कभी पहले किया जाना सुसंगत हो, तब ऐसे व्यक्ति की पूर्व दोषसिद्धि भी सुसंगत तथ्य होगी।
धारा 14 के अन्तर्गत जिन मन की दशाओं (मानसिक स्थिति) का उल्लेख है, वे निम्न हैं-
(1) आशय
(2) ज्ञान या जानकारी
(3) सदभाव
(4) उपेक्षा
(5) उतावलापन
आशय
आपराधिक मामलों में आशय या आपराधिक मनःस्थिति आपराधिक कृत्य का आवश्यक तत्व है। कहा जाता है कोई कृत्य अपराध तब तक नहीं कहा जायेगा जब तक यह न साबित कर दिया जाये कि वह कार्य आपराधिक मनः स्थिति के साथ किया गया था। इसी प्रकार दीवानी मामलों में कपट तथा विद्वेषपूर्ण अभियोजन में आशय एक आवश्यक तत्व है। कोई कार्य साशय किया गया था या दुर्घटनावश हो गया था यह प्रश्न अक्सर विवादित प्रश्न होता है। अभियुक्त अक्सर यह बचाव लेता है कि प्रश्नगत कार्य आशय के साथ नहीं किया गया था। अभियुक्त के आशय का पता उसके सहवर्ती आचरण या क्रियाकलाप के आधार पर निकाले गये अनुमान के आधार पर लगाया जा सकता है।
जानकारी या ज्ञान
आपराधिक मनःस्थिति के साथ-साथ ज्ञान या जानकारी भी अभियुक्त को दोषी बनाने का आवश्यक तत्व है। वे सभी तथ्य या अभियुक्त के आचरण जो उसकी जानकारी या ज्ञान का अनुमान लगाने में सहायक हैं, इस धारा के अन्तर्गत सुसंगत होते हैं तथा किसी वाद या विधिक कार्यवाही में साबित किये जा सकते हैं। दीवानी मामलों में कपट के मामले में जानकारी एक महत्वपूर्ण तथ्य हैं।
प्रत्येक तथ्य जो दोषपूर्ण जानकारी साबित करती हो साबित की जा सकेगी। कैदी पर इस बात का आरोप था कि उसने महाजन को एक अंगूठी से हीरे की अंगूठी गलत बहाने से बनाकर अग्रिम लेने का प्रयास किया था। यह प्रदर्शित करने के लिये साक्ष्य को उचित रूप से ग्राह्य हुआ माना गया कि प्रश्नगत संव्यवहार से दो दिन पूर्व कैदी ने एक चेन को सोने की बताकर एक महाजन से अग्रिम प्राप्त किया था जबकि वह सोने की नहीं थी। जिस मामले में ऐसा किया गया था वह बहुत सामान्य मामलों में है जिसमें कूटरचित सिक्के या दस्तावेज प्रदान किया जाता है परन्तु वे इन्हीं मामलों तक सीमित नहीं है।
इस धारा से जुड़े दृष्टान्त (क) (ख) (ग) तथा (घ) जानकारी या ज्ञान के मानसिक तत्व को स्पष्ट करते हैं।
क चुराया हुआ माल यह जानते हुये कि वह (माल) चुराया हुआ है, प्राप्त करने का अभियुक्त है। यह साबित कर दिया जाता है कि उसके कब्जे में विशिष्ट चुराई हुयी चीज थी।
यह तथ्य कि उसी समय उसके कब्जे में कई अन्य चुराई हुयी चीजें थी यह दर्शित करने की प्रवृत्ति रखने वाला होने के नाते सुसंगत है कि जो चीजें उसके कब्जे में थीं उनमें से प्रत्येक और सबके बारे में वह जानता था कि वे चुराई हुई हैं। [दृष्टान्त (क)]
सदभाव, दुर्भाव तथा कपट
कपट को अभिव्यक्ति तथा सकारात्मक सबूत के द्वारा साबित नहीं किया जा सकता। यह स्वभाव से गुप्त गतिविधि है। एक व्यक्ति का किसी कार्य के करने में सदभाव का अनुमान सामान्यतया उन कार्यों से लगाया जाता है जिससे कार्यों को उचित ठहराया जाता है ऐसे मामलों में वह सूचना जिस पर उसने कार्य किया अवसर महत्वपूर्ण होती है। जहाँ एक व्यक्ति जिस पर चोरी का आरोप है यह तर्क देता है कि उसने कार्य किया अवसर महत्वपूर्ण होती है। जहाँ एक व्यक्ति जिस पर चोरी का आरोप है यह तर्क देता है कि उसने प्रश्नगत सम्पत्ति को क्रय किया है न्यायालय उसे चोरी के लिये दण्डित नहीं करेगा यदि दावा सदभावपूर्वक किया गया है। इसका निश्चय सभी परिस्थितियों पर विचार करने से होगा। जहां अभियुक्त ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 206 के अन्तर्गत कपटपूर्वक तीन विभिन्न व्यक्तियों को तीन विभिन्न सम्पत्तियां एक निश्चित दिन को अन्तरित की जिससे उन्हें डिक्री के निष्पादन में होने से बचा जा सके तथा अभियोजन ने पांच अन्य सम्पत्तियों को अभियुक्त द्वारा कपटपूर्वक आचरण साक्ष्य में पाया गया जो उसी दिन उसी उद्देश्य से किया गया था यह साक्ष्य इस धारा के अन्तर्गत कपटपूर्ण आशय साबित करने के लिये उस धारा के अन्तर्गत ग्राह्य होगा।
सदभाव को साबित करने के लिये किस प्रकार के तथ्य सुसंगत हैं यह धारा 14 से जुड़े दृष्टान्त (च) (छ) तथा (ज) उल्लेखनीय हैं।
उपेक्षा या उतावलापन
युक्तियुक्त सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उल्लंघन उपेक्षा है। किसी कार्य को करने में सावधानी का अभाव या किसी विधिक कर्तव्य के पालन में उदासीनता उपेक्षा के अपकृत्य का गठन करती है यदि इससे किसी व्यक्ति को क्षति होती है। प्रत्येक आरोपित व्यक्ति यह तर्क देता है कि उसने अपने कर्तव्य का पालन सावधानीपूर्वक किया था तथा उसने जानबूझकर उपेक्षापूर्ण व्यवहार नहीं किया था परन्तु उसका आचरण तथा व्यवहार उसकी उपेक्षा को साबित करने के लिये सुसंगत होते हैं।
दुर्भाव या विद्वेष
दुर्भाव या विद्वेष साधारणतया पक्षकारों के पूर्ण या पश्चातवर्ती आचरण या व्यवहार या उनके रहन-सहन के ढंग से अनुमानित किया जाता है। जैसे कि पूर्व शत्रुता, पूर्व की लड़ाई-झगड़ा, आपस की प्रतिस्पर्द्धा। इसके खण्डनार्थ पूर्ण सदभाव के कथन तथा कृपाशीलता के कार्य प्रदर्शित किये जाते हैं।
जहाँ प्रश्न यह है कि क ने ख के विरुद्ध अपमानजनक लेख प्रकाशित किया था? यहाँ निम्न तथ्य सुसंगत अवधारित किये गये।
(1) यह कि अपमानजनक लेख पोस्टकार्ड या तार द्वारा प्रेषित थे,
(2) यह कि क जानता था कि अपमानजनक लेख झूठ था,
(3) क ने उसके औचित्य का अभिवाक् प्रस्तुत करने के पश्चात् न तो उसका सबूत दिया, न उस लेख का खण्डन ही किया।
शरीर की दशा तथा शारीरिक अनुभूति – शरीर या मन की दशा के बारे में तत्क्षण कथन
स्वयं अपने शरीर की दशा या शारीरिक संवेदना के विषय में किये गये कथन बहुधा स्वयंसेवी होते हैं। अतः वे ऐसी परिस्थितियों में किये गये हों जिससे झूठे न हों।
स्पष्टीकरण I. विशिष्ट तथ्यों का साक्ष्य न कि साधारण प्रवृत्ति का
धारा 14 से जुड़ा पहला स्पष्टीकरण धारा 14 के क्षेत्र को सीमित करता है। इस स्पष्टीकरण का प्रभाव यह है कि मन की दशा को साबित करने के लिये केवल ऐसे तथ्यों का साक्ष्य दिया जा सकता है जो मन की दशा को साधारणतः नहीं (not generally) परन्तु प्रश्नगत विषय के सन्दर्भ में प्रदर्शित करते हों।
इस प्रकार यदि यह प्रश्न है कि एक व्यक्ति एक विशिष्ट गाड़ी को त्रुटिपूर्ण जानते हुये प्रदान करता है जिसके उपयोग से किसी को क्षति होती है। यहां यह साबित करने की अनुमति नहीं होगी कि वह त्रुटिपूर्ण गाड़ी प्रदत्त करने का आदी है। परन्तु यह तथ्य कि उसने प्रश्नगत त्रुटिपूर्ण गाड़ी को स, द तथा च को भी प्रदत्त की थी तथा सभी क्षतिग्रस्त हुये थे तथा सभी ने क का ध्यान उस प्रश्नगत गाड़ी की त्रुटि की ओर आकर्षित किया था यह तथ्य सुसंगत होने के कारण साबित किया जा सकेगा।
स्पष्टीकरण II. पूर्व दोषसिद्धियों का साक्ष्य
यह स्पष्टीकरण 1891 के भारतीय साक्ष्य (संशोधन) अधिनियम संख्या III द्वारा प्रतिस्थापित किया गया। इसकी आवश्यकता कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा क्वीन एम्प्रेस बनाम कार्तिकचन्द दास में न्यायमूर्ति बायेय द्वारा दिय गये निर्णय से उत्पन्न हुयी। इस स्पष्टीकरण के अनुसार यदि किसी अपराध के अभियुक्त द्वारा पहले (पूर्व में) अपराध किया जाना धारा 14 के अन्तर्गत सुसंगत है तो उस व्यक्ति की पूर्ववर्ती दोषसिद्धि भी सुसंगत होगी।
धारा 14 के स्पष्टीकरण के अनुसार अपराध की पूर्व दोषसिद्धि तभी सुसंगत होगी जब अपराध का पहले (पूर्व में) किया जाना सुसंगत है। दूसरे शब्दों में जब कोई शरीर की दशा या शारीरिक अनुभूति प्रश्नगत है। उदाहरण के लिये जब एक व्यक्ति पर सामूहिक रूप से डकैती करने के लिये डकैतों के समूह का सदस्य होने का आरोप है। इस अधिनियम की धारा 14 के अन्तर्गत उसकी पूर्व दोषसिद्धि का सबूत ग्राह्य होगा क्योंकि उसका सन्दर्भ अभियुक्त के विरुद्ध लगे अपराध की प्रकृति से है।
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Lecture-5
अन्यत्र अभिवाक्
- ऐलीबाई का अभिवचन किया जा सकता है-
- वे तथ्य जो अन्यथा सुसंगत नही है, कब सुसंगत है-
- अन्यत्रता का तर्क धारा 11(1) के अंतर्गत मान्य होता हैः-
- नुकसानी की रकम अवधारित करने वाले तथ्य सुसंगत होते हैः-
- पूर्व दोषसिद्धि सुसंगत होती हैः-
(a) धारा 11
(b) धारा 12
(c) धारा 13
(d) धारा 14
(a) यदि वे विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य से असंगत है
(b) यदि वे विवाद्यक तथ्य से असंगत है
(c) यदि वे सुसंगत तथ्य से अंसगत है
(d) यदि वे अन्य तथ्य है
(a) सज्जन बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान
(b) मुंथी प्रसाद बनाम बिहार राज्य, A.I.R. 20015 S.C.
(c) उपरोक्त दोनो
(d) इनमें से कोई नही
(a) धारा 10
(b) धारा 11
(c) धारा 12
(d) धारा 13
(a) धारा 14
(b) धारा 14, स्पष्टीकरण 1
(c) धारा 14, स्पष्टीकरण 2
(d) धारा 14, स्पष्टीकरण 3
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LECTURE – 6
EVIDENCE
स्वीकृति तथा संस्वीकृति
MAINS -QUESTIONS
- स्वीकृति एवम् संस्वीकृति से आप क्या समझते है स्वीकृति एवम् संस्वीकृति में क्या अंतर है?
- पुलिस अधिकारी के समक्ष की गयी संस्वीकृति का साक्ष्यात्मक महत्व क्या है?
- स्वीकृति स्वीकृत विषयों का निश्चायक सबूत नहीं है किंतु विबन्ध कर सकती है इसको स्पष्ट करें?
- सहअभियुक्त की संस्वीकृति किन्हीं अन्य अभियुक्त के विरूद्ध न्यायालय विचार में ले सकती है इस नियम के संदर्भ में विश्लेषण करें।
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LECTURE – 6
EVIDENCE
स्वीकृति तथा संस्वीकृति
सामान्य:
1. धारा 17-31 स्वीकृति तथा संस्वीकृति से सम्बंधित है।
2. स्वीकृत विषयक उपबंध :
I. स्वीकृति की परिभाषा—————————————- धारा 17 r/w 18, 1920
II. स्वीकृति की सुसंगति——————————————धारा 21r/w 22,22a,23
III. स्वीकृति विबंध की भाँती प्रवर्तित होती है————————–धारा 31
IV. न्यायिक स्वीकृतियों को सिद्ध करना आवश्यक नहीं है————धारा 58
3. संस्वीकृति विषयक उपबंध
• संस्वीकृति की परिभाषा
• ऐसी संस्वीकृति जो विसंगत है
a. धारा 24
b. धारा 25
c. धारा 26
संस्वीकृति जो सुसंगत है-
a. धारा 28
b. धारा 26
c. धारा 27
d. धारा 29
e. धारा 30
स्वीकृति-परिभाषा तथा आवश्यक तत्व :
1. परिभाषा :s.17
“स्वीकृति वह मौखिक या दस्तावेजी या इलेक्ट्रोनिक रूप में अंतर्विष्ट कथन है जो किसी विवाधक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारे में कोई अनुमान इंगित करता है और जो ऐसे व्यक्तियों में से किसी के द्वारा और ऐसी परिस्थितियों में किया गया है जो एत्स्मिनपश्चात वर्णित है”
2. आवश्यक तत्व:
I. स्वीकृति एक मौखिक या दस्तावेजी या इलैक्ट्रॉनिक अभिलेख में अंतर्विष्ट कथन है।
II. यह एक ऐसा कथन है जो जो विवाधक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारे में अनुमान इंगित करता है।
III. यह अधिनियम में वर्णित परिस्थितियों में निदृष्ट व्यक्तियों द्वारा किया गया कथन है।
आचरण भी स्वीकृति गठित कर सकता है उचित मामला में “मौन” स्वीकृति गठित कर सकता है सक्रिय आचरण भी स्वीकृति गठित कर सकता है यहाँ धारा 8 का दृष्टांत (g) सन्दर्भ योग्य है।
स्वीकृति दायित्व की प्रत्यक्ष अभिस्वीकृति के रूप में हो सकती हैं यह दायित्व का संकेत या अनुमान करने वाला कथन या आचरण भी हो सकती है अनुमान स्पष्ट अभ्रामक तथा बोधगम्य होना चाहिये इसे अस्पष्ट, भ्रमाक या खंडित नहीं होना चाहिये।
3. कौन स्वीकृति कर सकेगा- ss 18,19,20
धारा 18 के अनुसार निम्न व्यक्तियों के कथन स्वीकृति हो सकते है-
A. वाद या कार्यवाही के पक्षकार
B. पक्षकारो के प्राधिकृत अभिकर्ता
C. विषय वस्तु में साम्पतिक या आर्थिक हित धारक व्यक्ति जबकि वे ऐसा हित धारण करते हो।
D. प्रतिनिधिक हैसियत से वाद संचालित कर रहे या वाद में प्रतिरक्षा कर रहे व्यक्ति का कथन ऐसे व्यक्तियों का कथन जिनसे पक्षकारो ने हित प्राप्त किया हो
धारा 19 के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति का कथन स्वीकृति हो सकेगा जिसकी स्थिति या दायित्व पक्षकारो के विरुद्ध सिद्ध की जाती है
धारा 20 के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति का कथन स्वीकृति होगा जिसे वाद के पक्षकार ने विवादित विषय के सन्दर्भ में सुचना हेतु अभिव्यक्त संदर्भित किया हो धारा 20 मे निदृष्ट विधि विलियम्स बनाम ऐंस के प्रकरण में प्रतिपादित सिद्धांत पर आधारित है। धारा 20 इस सामान्य नियम का अपवाद है कि तृतीय व्यक्ति का कथन सुसंगत नहीं होता है।
स्वीकृति की सुसंगत विषयक नियम :
1. स्वीकृतिया सुसंगत है अत: इन्हें स्वीकृतिकर्ता या उसके हित प्रतिनिधि के विरुद्ध सिद्ध किया जा सकता है
2. स्वीकृति की सुसंगति के आधार:
• स्वीकृतियां स्वक्षतिकारी कथन है।
• स्वीकृतियां सत्य का साक्ष्य समझी जाती है
• स्वीकृतिया विबंध की भांति प्रवर्तित होती है
3. कौन सी स्वीकृतिया विसंगत है
• दस्तावेज की अंतर्वस्तु के सम्बन्ध मे मौखिक स्वीकृतियां (सिवाय जबकि दस्तावेज की अंतर्वस्तु का द्वितीयक साक्ष्य देने को हकदार है)
• इलैक्ट्रॉनिक अभिलेख की अंतर्वस्तु के सम्बन्ध मे मौखिक स्वीकृतिया विसंगत है (सिवाय जबकि इलैक्ट्रॉनिक अभिलेख की अंतर्वस्तु की सत्यता प्रश्नगत हो
• सिविल मामलो में ऐसी स्वीकृतियां विसंगत है जो इस अभिव्यक्त शर्त के अधीन की गई है कि उसका साक्ष्य नहीं दिया जायेगा या ऐसी परिस्थितियों मे की गई स्वीकृति जिनसे न्यायालय यह निष्कर्ष कर रहा हो कि उनके साक्ष्य मे न दिए जाने के सम्बन्ध में पक्षकार परस्पर सहमत हुए थे धारा 23 वृत्तिक संसूचना को प्रकटीकरण के विरुद्ध उन्मुक्ति प्रदान नहीं करती है
• धारा 22 तथा 22-a में प्रावधानित नियम धारा 59 में प्रावधानित नियम का ही एक पक्ष है। धारा 22 तथा 22-a धारा 59 की प्रजातियाँ है
4. स्वीकृतिकर्ता या उसका हित प्रतिनिधि या उसकी और से कोई अन्य व्यक्ति स्वीकृति को सिद्ध नहीं कर सकता है इस प्रतिबंध का उदेश्य मिथ्या साक्ष्य गढ़े जाने की सम्भावना का निवारण करना है। अपवाद स्वरुप निम्न स्वीकृतियां प्रतिबंध से मुक्त होगी-
• ऐसी स्वीकृति जो अपनी प्रकृति से ऐसी है कि यदि स्वीकृतिकर्ता की मृत्यु हो गयी होती तो भी ऐसी स्वीकृति तृतीय व्यक्तियों के मध्य सुसंगत होती है
• ऐसी स्वीकृति जो अपनी प्रकृति से ऐसी है कि यह किसी मन की दशा या शरीर के अस्तित्व से संबंद्धित है तथा ऐसे मन या शरीर की दशा के अस्तित्व मे रहने के दौरान की गयी थी तथा साथ ही वह आचरण के साथ है और उसका मिथ्या होना अनाधि संभाव्य है
• ऐसी स्वीकृति जो स्वीकृति से अन्यथा सुसंगत है
स्वीकृतियां विबंध की भांति प्रवर्तित होती है (धारा 31)
1. स्वीकृतियां, स्वीकृत विषय पर निश्चायक साक्ष्य नहीं है अत: प्रतिकूल साक्ष्य द्वारा स्वीकृति को मिथ्या सिद्ध किया जा सकता है
2. यधपि स्वीकृतियां, स्वीकृत विषय पर निश्चायक साक्ष्य नहीं, तथापि यह बिबंध की भांति प्रवर्तित होती है अत: स्वीकृतकर्ता, उत्तरवर्ती अवसर पर अपनी स्वीकृति से मुकर नहीं सकता है।
3. स्वीकृत तथ्यों को सिद्ध करना आवश्यक नहीं रह जाता है धारा 58 केवल न्यायिक स्वीकृतियों पर लागू होती है। न्यायिक स्वीकृतियां कार्यवाही के भाग के रूप मे या अभिवचनो के माध्यम से की जाती है।
4. स्वीकृत तथ्यों को स्वीकृत से अन्यथा सिद्ध किये जाने की न्यायालय द्वारा अपेक्षा की जा सकती है।
स्वीकृतियों के प्रकार:
स्वीकृतिया तीन प्रकार की हो सकती है-
1. न्यायिक स्वीकृतियां औपचारिक स्वीकृतियां
2. न्यायिकेत्तर स्वीकृतिया
3. आचरण द्वारा स्वीकृति
1. न्यायिक स्वीकृतियां :
यह कार्यवाही के भाग के रूप मे या अभिवचनों मे की गई स्वीकृति है
यह प्रकल्पित या विविक्षित हो सकती है
यह श्रेष्ठ प्रकृति की होती है। यह धारा 58 की परिधि मे आता है।
न्यायिक स्वीकृतियां, स्वीकृतिकर्ता को पूर्णत: आबद्ध करती है यह निर्णय का आधार हो सकती है
2. न्यायिकेत्तर स्वीकृतियां :
इसे सक्ष्यिक स्वीकृति भी कहते है।
यह जीवन कार्यभार के सामान्य अनुक्रम में की गई होती है। यह आकस्मिक या अनौपचारिक बात में की गयी हो सकती है।
यह धारा 58 की परिधि मे नही है
3. आचरण द्वारा स्वीकृति :
सक्रिय या निष्क्रिय आचरण द्वारा स्वीकृति गठित हो सकती है
जहाँ किसी व्यक्ति से किसी बात के खंडन किये जाने की अपेक्षा की जाती है किन्तु वह उस बात का खंडन नहीं करता है, वहां उसका मौन आचरण द्वारा स्वीकृति गठित कर सकता
4. स्वीकृति केवल तथ्य की ही सकती है विधि की नहीं आंग्ल विधि में विधि की स्वीकृति भी मानी है।
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Lecture-6
P.T QUESTIONS
- स्वीकृति वह कथन है जो-
(a) मौखिक
(b) दस्तावेज
(c) इलेक्ट्रानिक
(d) उपरोक्त सभी
- रेफरी का नियम साक्ष्य अधिनियम की किस धारा में है?
(a) धारा 18
(b) धारा 19
(c) धारा 20
(d) धारा 21
- दस्तावेजों की अन्तर वस्तु के बारे में मौखिक स्वीकृतियाँ सुसंगत होती है जबकि-
(a) ऐसी दस्तावेज की अन्तर वस्तुओं का द्वितीयक साक्ष्य देने का हकदार है
(b) जब पेश की गई दस्तावेज का असली होना प्रश्नगत हो
(c) (a) एवम् (b) दोनों सही है
(d) उपरोक्त सारे गलत है
- .
- इलेक्ट्रानिक अभिलेखों की अन्तर वस्तु से सम्बन्धित मौखिक स्वीकृति सुसंगत होती है-
(a) जब पेश की गई इलेक्ट्रानिक अभिलेख की असलियत प्रश्नगत है
(b) जब पेश की गई इलेक्ट्रानिक अभिलेख की असलियत प्रश्नगत नहीं है
(c) (a) एवम् (b) का होना न्यायालय के विवेक पर है
(d) उपरोक्त सभी कथन सही है
- उत्प्रेरणा, धमकी या वचन द्वारा कराई गई संस्वीकृति दाण्डिक कार्यवाही में कब विसंगत होती है
(a) धारा 24
(b) धारा 28
(c) धारा 29
(d) धारा 30
- किसी पुलिस ऑफिसर की गई संस्वीकृति किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध-
(a) साबित की जाएगी
(b) साबित न की जाएगी
(c) न्यायालय के विवेक पर है
(d) पुलिस ऑफिसर के विवेक पर है
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 संम्बधित है-
(a) अग्नू नागेशिया बनाम बिहार राज्य, ए. आई. आर. 1966 एस. सी
(b) उ. प्र. राज्य बनाम देवमन उपाध्याय, ए. आई. आर 1960 एस. सी
(c) पुलुकरी कोटैय्या एवं अन्य बनाम इम्परर, ए. आई. आर. 1947 पी. सी.
(d) उपरोक्त सभी
- सहअभियुक्त की संस्वीकृति को न्यायालय विचार मे ले सकती है, प्रावधानित किया गया है-
(a) धारा 27
(b) धारा 28
(c) धारा 29
(d) धारा 30
- सहअभियुक्त की संस्वीकृति पर महत्वपूर्ण वाद है-
(a) कश्मीरा सिंह बनाम स्टेट आफ म.प्र., ए. आई. आर. 1952 एस. सी
(b) रटन बनाम क्वीन 1971
(c) आर. बनाम फोस्टर 1834
(d) उपरोक्त सभी
- स्वीकृतियाँ निश्चायक सबूत नहीं है किंतु विबन्ध कर सकती है, प्रावधानित है-
(a) धारा 29
(b) धारा 30
(c) धारा 31
(d) धारा 32
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LECTURE – 7
EVIDENCE
स्वीकृति
MAINS -QUESTIONS
- संस्वीकृति से आप क्या समझते है? पुलिस ऑफीसर के समक्ष की गई संस्वीकृति का साक्ष्यात्मक महत्व समझाइए।
- प्राधिकारवान व्यक्ति से आप क्या समझते है? प्राधिकारवान व्यक्ति द्वारा उत्प्रेरण, धमकी, वचन इत्यादि के द्वारा कारयी गई संस्वीकृति का क्या प्रभाव होगा?
- “कथन जाति है, स्वीकृति प्रजाति है एवं संस्वीकृति प्रजाति है” इस कथन को समझाइए।
- संस्वीकृति की सुसंगता एवं ग्रह्यता को विधिक प्रावधानों की सहायता से समझाइए।
- A ने B की हत्या करने के पश्चात् एक पत्र लिखा जिसमें उसने B की हत्या की संस्वीकृति की एवं उस पत्र को B के शव के पास रख कर चला गया। क्या ऐसी संस्वीकृति मान्य है?
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LECTURE – 7
EVIDENCE
स्वीकृति
सामान्य:
1. अधिनियम की धारा 24-30 संस्वीकृति सम्बन्धी वैधानिक नियम है। अधिनियम मे संस्वीकृति पद परिभाषित नहीं है स्वीकृति शीर्षक के अंतर्गत स्वीकृति तथा संस्वीकृति दोनों से सम्बंधित उपबंध दिए गये है।
2. धारा 24-30 संस्वीकृति की सुसंगति से सम्बंधित है इन उपबंधो के निम्नत: वर्गीकृत किया जा सकता है।
• उत्प्रेरणा, धमकी या वचन के अधीन की गई संस्वीकृति
• पुलिस को या पुलिस अभिरक्षा में रहते हुए की गयी संस्वीकृति
• गोपनीयता के वचन आदि के अधीन की गई संस्वीकृति
• सह-अभियुक्त द्वारा की गई संस्वीकृति की विचारणीयता
3. संस्वीकृति की पारिभाषा:
• अधिनियम में संस्वीकृति पद पारिभाषित नहीं है संभवत: इसका कारण यह है कि संस्वीकृति स्वीकृति की है एक प्रजाति है अत: विधायिका ने इसे पारिभाषित करना आवश्यक नहीं समझा।
• चूंकि संस्वीकृत स्वीकृति की ही एक ही प्रजाति है अत: स्वीकृति की परिभाषा को ही आवश्यक समायोजनो के साथ संस्वीकृति के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।
• सर जेम्स स्टीफन ने धारा 17 मे दी गई परिभाषा के रूप में प्रस्तुत किया परिभाषा निम्नवत है- “संस्वीकृति किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति द्वारा इस आशय की स्वीकृति है कि उसने आरोपित आपराध कारित किया या यह एक ऐसा कथन है जिससे यह अनुमान इंगित होता है की अभियुक्त ने आरोपित अपराध कारित किया है।
• पकला नारायण स्वामी 1939 pc के मामले में एटकिन ने सर जेम्स स्टीफन द्वारा प्रस्तुत की गई उपरोक्त परिभाषा को असंतोषजनक बताते हुए परिभाषा के अंतिम भाग को अस्वीकार कर दिया। लार्ड एटकिन ने कहा-संस्वीकृति ऐसी होनी चाहिए जिससे या तो अपराध को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया गया हो और या कम से कम अपराध से संबंधित करीब सभी तथ्य स्वीकार कर लिये गये हो।
संस्वीकृति की सुसंगति आधारिक नियम:
1. संस्वीकृति की सुसंगति हेतु निम्नलिखित दो मौलिक तथा अनिवार्य अपेक्षाये है-
• संस्वीकृति को स्वैछिक होना चाहिये तथा
• इसे सत्य तथा विश्वसनीय होना चाहिये
उपरोक्त दोनों अपेक्षाये संयुक्त है अत: दोनों का साथ-साथ सिद्ध किया जाना आवश्यक है। महत्वपूर्ण बात यह है कि सर्वप्रथम संस्वीकृति की स्वेछिकता पूर्व शर्त है।
2. स्वेच्छिकता का निर्धारण :
• संस्वीकृति की सुसंगति हेतु उसकी स्वेछिकता प्रथम अनिवार्य शर्त है स्वेच्छिकता आश्वस्त करने हेतु अभियुक्त को कुछ अवधि के लिए जेल अभिरक्षा में सुपुर्द किया जा सकता है यह अवधि न्यायिक विवेक के अधीन 36 या 48 या 72 घंटे हो सकती है जेल अभिरक्षा से लाये जाने पर मजिस्ट्रेट उसे यह बतायेगा कि वह संस्वीकृति करने हेतु किसी विधिक बाध्यता के अधीन नही है तथा यह है की ऐसी संस्वीकृति आभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्य मे प्रयुक्त हो सकती है। प्रश्न पूछकर मजिस्ट्रेट यह आश्वस्त करेगा कि संस्वीकृत स्वेच्छापूर्वक की जा रही है यदि वह स्वेच्छिक प्रतीत नही हो रही है तो वह संस्वीकृत दर्ज नही करेगा संस्वीकृति धारा 164 crpc. के अनुसार दर्ज की जायेगी।
3. सत्यता तथा विश्वसनीयता का निर्धारण:
• संस्वीकृति की गहन जांच की जानी चहिये
• उसे प्रकरण के तथ्य एवं परिस्थितियों मे तथा अन्य उपलब्ध साक्ष्य के परिक्षेप में देखा, परखा जाना चहिये।
• यदि संस्वीकृत, ऐसे तथ्य परिस्थितियों तथा साक्ष्य के साथ तारतम्यता मे हो तथा उनके साथ समायोजित हो रही हो तथा घटनाओ का एक नेर्संगिक क्रय प्रतीत हो रही हो तो उसे सत्य एवं विश्वसनीय माना जायेगा।
4. धारा 24-30 संस्वीकृति की सुसंगति के उपरोक्त सामान्य सिद्धांतो का वैधानिक प्रयोग है।
उत्प्रेरणा,धमकी या वचन द्वारा प्रेरित संस्वीकृति : s.24 r/w 28
1. धारा 24- “अभियुक्त व्यक्ति द्वारा की गई संस्वीकृत दांडिक कार्यवाही में विसंगत होती है, यदि उसके किये जाने के बारे मे न्यायालय को प्रतीत होता है कि अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध आरोप के बारे मे वह ऐसी उत्प्रेरणा धमकी या वचन द्वारा कराई गई है जो प्राधिकार व्यक्ति की ओर से दिया गया है। और जो न्यायालय की राय मे इसके लिए पर्याप्त हो की वह अभियुक्त व्यक्ति को यह अनुमान करने के लिए उसे युक्तियुक्त प्रतीत होने वाले आधार देती है कि उसके करने करने से वह अपने विरुद्ध कार्यवाहीयों के बारे मे एहिक रूप का कोई फायदा उठाएगा या अपने एहिक रूप की किसी बुराई का परिवर्जन का लेगा।”
2. धारा 28 के अनुसार- “यदि ऐसी कोई संस्वीकृति जैसी धारा-24 में निदृष्ट है, न्यायालय की राय मे उसके मन पर प्रभाव के जो ऐसी किसी उत्प्रेरणा, धमकी या वचन से कारित हुआ है, पूर्णत: दूर हो जान के पश्चात की गई है, तो वह सुसंगत है ।
3. प्यारेलाल भार्गव बनाम स्टेट ऑफ़ राजस्थान, 1993 sc धारित-
प्राधिकारवान व्यक्ति द्वारा दी गई उत्प्रेरणा,धमकी या वचन संस्वीकृति की स्वेच्छिका को नष्ट कर देते है। ऐसी संस्वीकृति विसंगत होगी भले ही यह सिद्ध न किया जा सका हो की ऐसी उत्प्रेरणा, धमकी या वचन अभियुक्त तक पहुंची थी।
4. प्राधिकारवान व्यक्ति- उदहारण :
• न्यायधीश या मजिस्ट्रेट
• न्यायधीश या मजिस्ट्रेट के स्टाफ का कोई सदस्य
• p.o.-Police Officer
• अभियोजक
• उपरोक्त के पत्नी, या पति, निकट सम्बन्धी या व्यक्तिगत मित्र
5. क्वीन एमप्ररर बनाम मोहन लाल 1881 इलाहाबाद धारित :
जाति से निष्कासन की धमकी आरोप के प्रति संदर्भित नहीं कही जा सकती है अत: ऐसी धमकी की गई संस्वीकृति विसंगत नही होगी ऐसी संस्वीकृति सिद्ध की जा सकेगी।
6. ऋतू बनाम स्टेट ऑफ़ यू.पी. 1956 धारित :
उत्प्रेरणा,धमकी या वचन आरोप के सम्बन्ध मे होना चाहिये। जाति से निष्कासन की धमकी एहिक प्रकृति की हानि तो है किन्तु यह आरोप से सम्बंधित नहीं है। अत: संस्वीकृति सुसंगत बनी रहेगी।
7. केवल नैतिक या आध्यात्मिक उत्प्रेरणा संस्वीकृति को विसंगत नही करती है अत: निम्नलिखित संस्विकृतियाँ सुसंगत बनी रहेगी-
• यह सुनिश्चित कर लो कि तुम सत्य ही बोलोगे।
• आपने एक पाप किया है, अब दूसरा न करो
• आप मंदिर में है, यहाँ आप झूठ नहीं बोल सकते।
पुलिस को या पुलिस अभिरक्षा मे रहने के दौरान की गई संस्वीकृति :ss 25,26,27:
1. पुलिस से की गई संस्वीकृति:धारा 25
• धारा 25 के अनुसार-
“किसी पुलिस ऑफिसर से की गई कोई भी संस्वीकृति किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध साबित न की जायेगी”
• धारा 25 में प्रावधानित नियम विधि का पूर्ण नियम है।
• धारा 25 का तार्किक आधार :
पुलिस अत्याचार का निवारण करना
पुलिस द्वारा निष्ठापूर्ण अन्वेषण बाध्य कारना पुलिस को लघु मार्ग का अनुसरण करने से रोकना
गहन अन्वेषण द्वारा वास्तविक दोषी को न्यायिक प्रक्रिया के अधीन लाना
अभियुक्त को अपने ही साक्ष्य पर दोषसिद्धि रोकना।
• पुलिस अधिकारी-व्यापक अर्थ:
धारा 25,26 तथा 27 के प्रयोजनों हेतु पुलिस शब्द व्यापक अर्थो मे प्रयुक्त है। पुलिस अधिकारी में पुलिस बल का नियमित सदस्य शामिल है। इसमें ऐसे व्यक्ति भी शामिल है जो पुलिस सदृश शाक्तियां पर्युक्त करते है।
राजाराम जसवाल बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार, 1964 sc :आबकारी निरीक्षक या उपनिरीक्षक धारा 25 के प्रयोजनों हेतु पुलिस अधिकारी है-
बालकृष्ण बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र,1951 sc:RPF का जवान धारा 25 के प्रयोजनों हेतु p.o. नहीं है।
क्वीन बनाम जगरूप, 1885 इलाहाबाद धारित: पुलिस से किया गया असंस्विकृतिकारी कथन सुसंगत होगा।
रमेशचंद्र मेहता बनाम स्टेट ऑफ़ वेस्ट बंगाल :1970 sc पुलिस से की गई संस्वीकृति विसंगत होगी भले ही उस समय, संस्वीकृतिकर्ता औपचारिक रूप से आभियुक्त नही था।
एमप्र्र बनाम हारिप्यारी 1881 इलहाबाद धारित-पुलिस की गई संस्वीकृति सुसंगत रहेगी, किन्तु यदि संस्वीकृति प्राप्त करने के लिए गोपनीय अभिकर्ता नियुक्त किया गया था तब संस्वीकृति विसंगत होगी।
सीताराम बनाम स्टेट ऑफ़ यू.पी. 1996 sc धारित- जहाँ हत्यारे ने शव के पास संस्वीकृति युक्त लिखित पत्र इस अआश्य से रख दिया ही कि वह पुलिस के हाथ लग जाये, वहां संस्वीकृति विसंगत नही होगी।
2. पुलिस अभिरक्षा में रहते हुए की गई संस्वीकृति : s. 26,27
• पुलिस अभिरक्षा मे रहते हुए किसी व्यक्ति से की गई संस्वीकृति विसंगत है।
• पुलिस अभिरक्षा से तात्पर्य पुलिस नियंत्रण से है। पुलिस नियंत्रण कहीं भी स्थापित किया जा सकता है पुलिस स्टेशन या उसके बाहर कहीं भी पुलिस नियन्त्रण स्थापित किया जा सकता है।
• धारा 26,25 में वर्णित नियम का ही आगे विस्तार है धारा 26 का नीतिगत आधार यह है कि जो कुछ प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जा सकता है उसे परोक्षत: भी करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
• धारा 26 में प्रावधानित नियम विधि का पूर्ण नियम नहीं है।
धारा 26 मे एक अपवाद स्वीकार करती है। इसके अनुसार “मजिस्ट्रेट की साक्षात् उपस्थिति में की गई संस्वीकृति सुसंगत होगी भले ही संस्वीकृतिकर्ता पुलिस अभिरक्षा मे रहा हो।” जे.एल. एरीयल बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 1954 sc
इस प्रकरण मे यह धारण किया गया कि साक्षात् या तात्कालिक उपस्थिति से तात्पर्य उस कक्ष में उपस्थिति से है जिसमे अभियुक्त संस्वीकृत करते समय था।
• धारा 27 पुलिस अभिरक्षा में रहते हुए किये गये ऐसे कथन का उतना अंश सिद्ध किये जाने की अनुमति देती है, जितने से किसी तथ्य का पता चला हो। वस्तुत: धारा 27 पूर्ववर्ती धारा 26 के परंतुक जैसा है। धारा 27 के अनुसार-“जहाँ पुलिस अभिराक्षधीन अभियुक्त से प्राप्त सुचना के परिणामस्वरूप किसी तथ्य का पता चला हो, वहां ऐसी सुचना का उतना अंश जितना पता चले हुए तथ्य से सुभिन्नता सम्बन्ध है, सिद्ध किया जा सकेगा।”
• देवमन उपाध्याय बनाम उ.प्र. राज्य, 1966 sc- इस प्रकरण में इलाहाबाद HC ने धारा 27 को अनुच्छेद 21(3) के प्रतिकूल होने के आधार पर शून्य घोषित कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद hc के निर्णय को उलटते हुए धारा 27 को सवैधानिक घोषित किया।
अन्यथा सुसंगत संस्वीकृति,गोपनीयता के वचन आदि के कारण विसंगत नहीं होगी :-
धारा 29
1. धारा 29 केवल दांडिक मामलो में लागू होती है यह धारा सिविल तथा अन्य मामलों में लागू नहीं होती है।
2. अन्यथा सुसंगत संस्वीकृति निम्नलिखित में से किसी आधार पर विसंगत नहीं होगी- • यह कि संस्वीकृति गोपनीयता के वचन के अधीन की गई थी।
• यह कि संस्वीकृति प्रवचनापूर्ण साधनों से प्राप्त की गई थी।
• यह कि संस्वीकृति मत्तता के दौरान की गई थी।
• यह कि संस्वीकृति ऐसे प्रश्नों के उत्तर में की गई थी जिनका उत्तर देना अभियुक्त के लिए आवश्यक नहीं था।
• यह कि अभियुक्त को यह चेतावनी नहीं दी गई थी कि वह संस्वीकृत करने हेतु आबद्ध नहीं था तथा यह कि उसके द्वारा संस्वीकृति साक्ष्य में दी जा सकती है।
3. “अन्यथा सुसंगत संस्वीकृति” से तात्पर्य ऐसी संस्वीकृति से है जो स्वेच्छिक हो तथा साथ ही वह सत्य एवं विश्वसनीय भी हो।
संस्वीकृतिकर्ता तथा उसके साथ उसी अपराध हेतु सयुक्त: विचारित व्यक्ति को प्रभावित करने वाली संस्वीकृति धारा 30:
1. जहाँ एक ही अपराध के लिए संयुक्त्त: विचारित व्यक्तियों मे से कोई एक व्यक्ति स्वयं को तथा संयुकत: विचारित किसी अन्य व्यक्ति को प्रभावित करने वाली संस्वीकृति करता है तथा ऐसी संस्वीकृति सिद्ध हो जाती है, वहां न्यायालय ऐसी संस्वीकृति को संस्वीकृतिकर्ता तथा उसी अपराध हेतु संयुक्त्त: विचारित व्यक्ति दोनों के लिए विचार मे ले सकेगा।
2. धारा 30 के प्रयोजनों के लिए अपराध में निम्नलिखित शामिल है-
• दुष्प्रेरण: एवं
• प्रयत्न
3. धारा 30 संस्वीकृति को विचार में लिए जाने का प्रावधान करती है किन्तु यह धारा ऐसी संस्वीकृति के साक्ष्यिक बल के सम्बन्ध मे मौन है।
4. CASES:
• भुभनी साहू बनाम किंग 1949 pc
• कश्मीरा सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ m.p. 1952 sc
उपरोक्त प्रकरणों में यह धारण किया गया कि धारा 30 की परिधि में आने वाले संस्वीकृति संस्वीकृतिकर्ता से भिन्न संयुक्त्त: विचारित व्यक्ति के सन्दर्भ में केवल समर्थनकारी होगी। यह उसकी दोषसिद्धि का आधार नहीं हो सकती है।
प्रत्याहारी संस्वीकृति:
1. प्रत्यहारी संस्वीकृति की वैधानिक परिभाषा उपलब्ध नहीं है वस्तुत: अधिनियम में इस अभिव्यक्ति का कहीं भी प्रयोग नहीं हुआ है अपने सामान्य अर्थो में, प्रत्याहारी संस्वीकृति एक ऐसी संस्वीकृति है जिससे, बाद में संस्वीकृतिकर्ता यह कहते हुए मुकर जाता है कि उसने ऐसी कोई संस्वीकृति नहीं की या उसके द्वारा की गई संस्वीकृति मिथ्या है।
2. सिद्धांत प्रत्याहरण संस्वीकृति को निष्प्रभावी या विसंगत नहीं बनाता है दुसरे शब्दों में, प्रत्याहरण के बावजूद, संस्वीकृति सुसंगत बनी रहती है।
3. व्यवहारिक नियम यह है कि प्रत्याहारी संस्वीकृति की तात्विक विशिष्टियों पर स्वतंत्र साक्ष्य से संपुष्टिकरण की मांग की जानी चाहिये सम्पूर्णता से संपुष्टिकरण आवश्यक नही होगा। संपुष्टिकरण का नियम सतर्कता का नियम है, विधि का नहीं अत: किसी विशेष मामले में संपुष्टिकरण के बिना संस्वीकृति को दोषसिद्धि का आधार बनाया जा सकता है
4. CASES:
• स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र बनाम M.K. मैटी 1980: इस प्रकरण में अभियुक्त ने अपनी संस्वीकृति प्रत्याहरित कर ली थी इस संस्वीकृति के आधार पर तस्करी का माल बरामद हुआ इस संस्वीकृति के आधार पर दोषसिद्धि अभिलिखित की गई थी दोषसिद्धि को वैध ठहराया गया।
• प्यारेलाल बनाम स्टेट ऑफ़ राजस्थान 1963: बिना संपुष्टिकरण के प्रत्याहारी संस्वीकृति के आधार पर दोषसिद्धि अभिलिखित करना सुरक्षित नहीं है। जहाँ मामले के तथ्यों व परिस्थितियों से संस्वीकृत स्वेच्छिका तथा सत्यता स्थापित होती है, वहां बिना संपुष्टि के दोषसिद्धि अभिलिखित करना विधि-विरुद्ध नहीं होता है।
संस्वीकृति सक्ष्यिक मूल्य तथा उसके प्रकार :
1. सक्ष्यिक मूल्य
• संस्वीकृति एक सारवान साक्ष्य है अत: यह दोषसिद्धि का एकल आधार हो सकता है
• प्रत्यहारित संस्वीकृति भी सिद्धांत दोषसिद्धि का आधार हो सकती है सतर्कता का नियम यह है ऐसी संस्वीकृति को सारवान विशिष्टियों पर संपुष्ट करा लेना चाहिये।
• संयुक्त्त: विचारित में से किसी एक के संयुक्तता विचारित किसी व्यक्ति को संदर्भित करती है विचारणीय तो होगी, किन्तु उस व्यक्ति की दृष्टि से उसका सक्ष्यिक बाल पुष्टि दुर्भर होगा ऐसी संस्वीकृति केवल समर्थनकारी मूल्य रखेगी
2. संस्वीकृति के प्रकार :
• न्यायिक संस्वीकृति
इसे औपचारिक संस्वीकृति भी कहते है
यह न्यायालय के समक्ष या न्यायिक कार्यवाही के भाग के रूप में की जाती है।
यह पूर्णत: आबद्धकारी होती है अत: यह दोषसिद्धि का एकल आधार हो सकती है
• न्यायिकेत्तर संस्वीकृति
इसे अनौपचारिक या आकस्मिक संस्वीकृति कहते है
यह जीवन या कारबार के सामान्य अनुक्रम में, किन्तु न्यायालय से बाहर की जाती है।
यह स्वयं से भी की जा सकती है (साहू vs स्टेट बैंक ऑफ़ up 1996)
इसकी विश्वसनीयता हेतु यह आवश्यक है कि यह अभियुक्त के शब्दों में हो। इसका हेतुक दृश्य होना चाहिये। इसे विश्वसनीय व्यक्ति से किया गया होना चाहिये
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LECTURE – 8
EVIDENCE
मृत्युकालिक कथन
MAINS -QUESTIONS
- मृत्युकालिक कथन से आप क्या समझते है इसकी सुसंगति एवम् ग्राहयता के सन्दर्भ में साक्ष्यात्मक महत्व को समझाइयें।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम में लोकअधिकार या रूढ़ि के सन्दर्भ में सुसंगति के प्रावधानों को समझाइयें।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अन्तर्गत नातेदारी के अस्तित्व से सम्बन्धित सुसंगत तथ्यों की चर्चा करें।
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Lecture-8
मृत्युकालिक कथन
सामान्य:
1. मृत्युकालिक कथन की सुसंगति विषयक विधि लैटिन सूक्ति “nemo moriturus praesemitur mentire” (अर्थात मृत्युशय्या पर पड़ा हुआ व्यक्ति मिथ्या कथन नहीं करता है) पर आधारित है। मृत्युकालिक कथन की सुसंगति का आधार आवश्यकता तथा औचित्य भी है
2. मृत्युकालिक कथन धारा 32(1) के अंतर्गत सुसंगत है मृत्युकालिक कथन की सुसंगति अनुश्रुत साक्ष्य के अपवर्जन के नियम का एक अपवाद है
3. मृत्युकालिक कथन एक सारवान साक्ष्य है अत: यह दोषसिद्धि का एकल आधार हो सकता है
4. मृत्युकालिक कथन कथनकर्ता की मृत्यु के कारण के बारे मे किया गया कथन है। यह उस संव्यवहार की किसी परिस्थिति के बारे मे किया गया कथन हो सकता है जिसकी परिणिति कथनकर्ता की मृत्यु मे हुई है।
5. जो कोई मृत्युकालिक कथन का साक्ष्य देना चाहता है उसे प्रथमत: कथनकर्ता की मृत्यु सिद्ध करना होगा
6. मृत्युकालिक कथन सम्बंधित भारतीय विधि की अपेक्षा व्यापक है। इसे निम्नलिखित दो बिन्दुओ से समझा जा सकता है-
• आंग्ल विधि में कथनकर्ता को कथन करते समय मृत्यु की प्रत्याशा में होना चाहिये भारतीय विधि में कथनकर्ता का मृत्यु की प्रत्याशा में होना आवश्यक नहीं है।
• आंग्ल विधि में मृत्युकालिक कथन केवल दांडिक कार्यवाही में सुसंगत है भारतीय विधि में मृत्युकालिक कथन किसी भी कार्यवाही में स्सुसंगत हो सकता है यदि उसमें कथनकर्ता की मृत्यु का प्रश्न उठा है।
मृत्युकालिक कथन – आवश्यक तत्व:
1. कथनकर्ता द्वारा किसी सुसंगत तथ्य के बारे में मौखिक या लिखित कथन किया गया हो।
2. कथनोप्रांत, कथनकर्ता की मृत्यु हो गई हो
3. ऐसे कथनकर्ता ने-
• अपनी मृत्यु का कारण ; या
• उस संव्यवहार जिसकी परिणिति उसकी मृत्यु में हुई हो कि, किसी परिस्थिति के बारे में कुछ कहा हो
4. कार्यवाही में कथनकर्ता की मृत्यु का कारण प्रसंगत होना चाहिये उपरोक्त अपेक्षाओ के संतुष्ट होने पर प्रश्नगत कथन मृत्युकालिक कथन के रूप में सुसंगत होगा चाहे कार्यवाही की प्रकृति कुछ भी हो और चाहे कथन करते समय कथनकर्ता मृत्यु की प्रत्याशा मे हो रहा हो या नहीं
5. पाकला नारायण स्वामी बनाम किंग एम्परर1939 pc:
इस प्रकरण में शब्द “संव्यवहार की किसी परिस्थिति” का निर्वाचन किया गया यह धारण किया गया कि यह आवश्यक नहीं है:-
(i) कथन संव्यवहार के पूर्ण हो जाने के बाद किया गया हो
(ii) कथनकर्ता कथन करते समय कम से कम मृत्यु के निकट होना चाहिए
(iii) परिस्थितियां समय तथा स्थान की दृष्टि से मृत्यु की निकटवर्ती रही हो
6. क्वीन इम्प्ररस बनाम अब्दुल्ला 1885 धारित: मृत्युकालिक कथन संकेतों के द्वारा भी किया जा सकता है न्यायमूर्ति महमूद ने विसम्मति व्यक्त करते हुए यह अपेक्षित किया की संकेत कथन नियमित नहीं करते है अत: संकेतों द्वारा मृत्युकालिक कथन नहीं किया जा सकता है संकेत धारा 8 के अंतर्गत सुसंगत हो सकते हैंI
7. दर्शनसिंह बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब धारित: यदि कथनो उपरांत कथनकर्ता जीवित बच जाता है तो उसका कथन मृत्युकालिक कथन के रूप में सुसंगत नहीं होगाI ऐसा कथन धारा 157 के अंतर्गत उसके वर्तमान कथन के खंडन या सम्पुष्टिकरण हेतु प्रयुक्त किया जा सकता है I
मृत्युकालिक कथन किससे किया जा सकता है
1. मृत्युकालिक कथन स्वभाविक रूप से उपलब्ध किसी भी व्यक्ति से किया जा सकता है अत: यह निम्नलिखित में से किसी भी व्यक्ति से किया गया हो सकता है
(i) परिवार का कोई सदस्य
(ii) सेवक
(iii) चिकित्साकर्मी
(iv) पुलिसकर्मी
(v) पड़ोसी या अजनबी
2. कोई व्यक्ति कितने ही मृत्युकालिक कथन कर सकता हैI यह भिन्न समयों पर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों से किया जा सकता हैI
3. जहाँ एक से अधिक मृत्युकालिक कथन किये गये हो वहा उनमे विषमता या प्रतिकूलता नहीं होनी चाहिए प्रतिकूलता या विषमता पाये जाने पर मृत्युकालिक कथन संधिग्ध तथा उसका साक्ष्यिक मूल्य गिर जायेगाI
4. यह भी आवश्यक है कि कथन करते समय कथनकर्ता की मानसिक या शारीरिक स्थितियां स्थिर रही हैI
मृत्युकालिक कथन के सम्बन्ध में भारतीय तथा आंगल विधि में अंतर:
1. मृत्युकालिक कथन सम्बन्धी भारतीय विधि आंगल विधि के सापेक्ष व्यापक हैI
2. भारतीय विधि में, कथन करते समय कथनकर्ता का मृत्यु की प्रत्याशा में होना आवश्यक नहीं हैI आंगल विधि में मृत्युकालिक कथन की सुसंगति हेतु यह आवश्यक है कि कथन की सुसंगति हेतु यह आवश्यक है कि कथन करते समय कथनकर्ता मृत्यु कि प्रत्याशा में रहा होI
3. भारतीय विधि में मृत्युकालिक कथन ऐसी किसी भी कार्यवाही में सुसंगत हो सकता है जिसमें कथनकर्ता की मृत्यु का प्रश्न अंतर्विष्ट होI आंगल विधि में मृत्युकालिक कथन केवल दाण्डिक मामलों ने सुसंगत हो सकता है वह भी तब जबकि अभियुक्त पर हत्या या सदोष मानवबंध का आरोप होI
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Lecture-8
P.T QUESTIONS
- मृत्युशैय्या पर पड़ा हुआ व्यक्ति सत्य एवं केवल सत्य बोलने की इच्छा रखता है, किसने कहा था-
(a) स्टीफन
(b) मैथ्यू आर्नल्ड
(c) एटकिन
(d) पी. एन. भागवती
- मृत्युकालिक कथन का उस संव्यवहार में किया जाना जिसके कारण मृत्यु हुई, निर्णीत किया गया है-
(a) राम चन्द्र बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, ए. आर. 1957 एस. सी.
(b) इम्परर बनाम फकीर मोहम्मद 1935
(c) भगवान कौर बनाम एम. केशमी, ए. आई. आर. 1973 एस. सी.
(d) पाकला नारायण स्वामी बनाम इम्परर, ए. आई. आर 1947 पी. सी.
- मृत्युकालिक कथन लागू होता है-
(a) सिविल कार्यवाहियों में
(b) दाण्डिक कार्यवाहियों में
(c) सिविल या दाण्डिक कार्यवाहियों में
(d) केवल दाण्डिक कार्यवाहियों में, सिविल कार्यवाही में नहीं
- मृत्युकालिक कथन में मृतक को मृत्यु की आशंका का होना अनिवार्य है क्या यह कथन-
(a) सही है
(b) गलत है
(c) मृत्यु की प्रत्याशंका का होना आवश्यक नहीं है
(d) उपरोक्त सभी कथन विचारनीय है
- प्रश्न यह है कि क्या अमुक सड़क लोक-मार्ग है-ग्राम के मृत ग्रामणी क के द्वारा किया गया कथन कि वह सड़क लोकमार्ग है
(a) सुसंगत है
(b) विषगत है
(c) सुसंगति की अवधारणा न्यायालय विनिश्चय करेगी
(d) इनमें से कोई नहीं
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LECTURE – 9
EVIDENCE
विशेषज्ञ की राय का साक्ष्य
ss.45-51
MAINS -QUESTIONS
- विशेषज्ञ से आप क्या समझते है, विशेषज्ञों की राय की सुसंगता के सन्दर्भ में प्रावधानों का उल्लेख करें।
- हस्तलेख के बारे में राय की सुसंगति को समझाइए।
- विशेषज्ञ की राय के सक्ष्यिक मूल्यों को समझाइए।
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Lecture-9
विशेषज्ञ की राय का साक्ष्य
ss.45-51
सामान्य:
धारा 45-51 तृतीय व्यक्तियों की राय की सुसंगति से सम्बंधित है। तृतीय व्यक्ति से तात्पर्य पक्षकारों से भिन्न किसी व्यक्ति से है। तृतीय व्यक्ति से विशेषज्ञ तथा अविशेषज्ञ दोनों शामिल हैं।
2. सामान्य नियम:
(i) साक्षी तथ्य का साक्षी होता है राय या विधि का नहीं अत: साक्षी से यह अपेक्षित है कि वह न्यायालय को उन तथ्यों से अवगत कराये जो उसने देखे हैं या सुने हैं या अन्यथा अनुभूति दे सकते हैं।
(ii) राय निर्मित करना न्यायिक कृत्य हैं साक्षी, राय निर्मित करने में न्यायालय को सहायता दे सकते हैं।
3. अपवाद:
(i) कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं हैं अत: तकनीकी प्रकृति के कुछ ऐसे विषय हो सकते हैं जिन पर राय निर्मित करने में न्यायालय कठिनाई का अनुभव कर सकता है। ऐसे मामलों में अपवाद स्वरूप ऐसे व्यक्तियों की राय सुसंगत हो सकती है जो उन निर्दिष्ट तकनिकी विधियों पर विशेष दक्षता प्राप्त है। ऐसे विशेष दक्षता प्राप्त व्यक्ति विशेषज्ञ कहलाते हैं।
4. विशेषज्ञ की राय का साक्ष्य सुसंगत तो होता है किन्तु अनेक कारणों से इसका सक्ष्यिक मूल्य दुर्भर होता है। अत: न्यायधीश से यह अपेक्षित है कि वह विशेषज्ञ की राय के समक्ष अपनी राय का समर्पण न करें। न्यायालय को चाहिए की वह विशेषज्ञ की राय की सहायता से अपनी स्वतंत्र राय निर्मित करें।
5. जब कभी विशेषज्ञ की राय सुसंगत होती है तब निम्नलिखित भी सुसंगत होंगे-
(i) विशेषज्ञ की राय का समर्थन या खंडन करने वाले तथ्य; तथा
(ii) विशेषज्ञ की राय के आधार
6. धारा 48,49,50 में वर्णित व्यक्तियों की राय भी सुसंगत हो सकती है यधपि वे विशेषज्ञ की में नहीं आते हैं।
ब्रिस्टो 1850 के प्रकरण में विधि में व्यवसाय करने वाले अधिवक्ता की राय को विदेशी विधि के एक बिंदु पर सुसंगत माना गया था।
डी. विच 1935 के प्रकरण में विदेशी बैंकिंग विधि के प्रश्न पर एक बैंकर की राय को सुसंगत माना गया था।
किन विषयों पर विशेषज्ञों की राय सुसंगत है
1. धारा 45 के अंतर्गत निम्नलिखित के सम्बंधित में विशेषज्ञ की राय सुसंगत होगी-
(i) विदेशी विधि के किसी बिंदु पर
(ii) विज्ञान या कला के किसी बिंदु पर
(iii) अँगुली चिन्ह या हस्तलेख के सम्बन्ध में
2. धारा 45-A के अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य परीक्षक की राय सुसंगत होगी उसकी राय कंप्यूटर स्रोत या किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक या आंकिक रूप में संग्रहित या पारेषित सूचना के सम्बन्ध में सुसंगत होगी।
3. विदेशी विधि:
(i) विदेशी विधि से तात्पर्य ऐसी विधि से है जो भारत में प्रवर्तित न हो
(ii) शिया विधि विदेशी विधि नहीं हैं क्योंकि यह भारतीय शिया मुस्लिमों पर लागू होती है। अत: शिया विधि के किसी बिंदु पर विशेषज्ञ की राय सुसंगत नहीं होगी। [अजीज बानों]
(iii) विदेशी विधि के किसी बिंदु को निम्नलिखित ढंग से सिद्ध किया जा सकता है।
(a) विशेषज्ञ की राय द्वारा
(b) सम्बंधित विदेशी शासन के प्रधाकराधीन प्रकाशित ग्रन्थ के प्रत्यक्ष संधर्भ द्वारा।
4. विज्ञान या कला:
(i) विज्ञान या कला शब्दों को उनके तकनीकी अर्थों में नहीं लिया जायेगा इन्हें विशेषज्ञ अध्ययन, ज्ञान या अनुभव से सम्बध् विषय के परीपेक्ष में लिया जायेगा ऐसा कोई भी बिंदु विषये जो एक सामान्य व्यक्ति की समक्ष से परे है उसे विज्ञान या कला का बिंदु माना जा सकता है।
(ii) एस. जे. चौधरी 1996 sc के प्रकरण में sc ने हनुमंत, 1962 के प्रकरण को अमान्य घोषित करते हुये यह धारण किया कि कोई पत्र एक विशेष टाइप मशीन से टाइप किया गया है या कि नहीं इसे विज्ञान का प्रश्न माना जा सकता है।
5. हस्तलेख या अंगुलिचिंह की पहचान:
(i) हस्लेख तथा अगुलिचिंह विशिष्ट होते हैं प्रत्येक व्यक्ति का हस्लेख तथा उसके अंगुलिचिंह विशिष्ट तथा सुभिन्न होते हैं। विशेष दक्षता प्राप्त व्यक्ति यह राय दे सकता है कि प्रश्नगत हस्तलेख अंगुलिचिंह किसी विशिष्ट व्यक्ति का है या नहीं
(ii) अंगुलिचिंह को विशेषज्ञ की राय से सिद्ध किया जा सकता है हस्तलेख को कई साधनों से सिद्ध किया जा सकता है, यथा-
(a) लेखक की स्वीकृति द्वारा-
(b) प्रत्यक्षदर्शी के साक्ष्य द्वारा-
(c) सुपरिचित व्यक्ति की राय द्वारा-
(d) विशेषज्ञ की राय के साक्ष्य द्वारा-
(e) न्यायालय द्वारा तुलना करके-
(iii) मुरारीलाल 1980 के प्रकरण में यह धारित किया गया की हस्तलेख के सम्बन्ध में विशेषज्ञ की राय पर आँख मूँद कर विश्वास नहीं करना चाहिए उसकी राय के सम्पुष्टिकरण की मांग की जानी चाहिये किसी विशेष मामले में, सम्पुष्टिकरण की मांग का परित्याग किया जा सकता है निष्कर्ष यह है की न्यायालय को सतर्क रहना चाहिये।
विशेषज्ञ की राय के साक्ष्य का सक्ष्यिक मूल्य:
1. विशेषज्ञ की राय का साक्ष्य निम्नलिखित कारणों से दुर्बल साक्ष्य माना जाता है
(i) विशेषज्ञ द्वारा भूल-चूक की जा सकती है
(ii) विशेषज्ञ एक भ्रष्ट व्यक्ति हो सकता है
(iii) विशेषज्ञ पर्याप्त दक्षता संपन्न नहीं भी हो सकती
(iv) विशेषज्ञ एक पेशेवर व्यक्ति होता है परिणामत: उसकी राय उस व्यक्ति के पक्ष में झुकी हुई हो सकती है जिससे शुल्क चुकाकर विशेषज्ञ की सेवाये ली हैं।
2. चूकी विशेषज्ञ की राय के साक्ष्य का सक्ष्यिक मूल्य दुर्बल होता है अत: न्यायालय से विशेष सतर्कता अपेक्षित है।
3. चिकित्सीय साक्ष्य के विशेषज्ञ की राय होता है ऐसा साक्ष्य सदैव निर्णायक तथा अंतिम नहीं होता है। अत: जहाँ चिकित्सीय साक्ष्य, प्रत्यक्षदर्शी के साक्षी के साक्ष्य में विरोध हो, वहाँ न्यायालय उस साक्ष्य का अवलंब लेगा जो न्यायिक अंत:कारण को अधिक विश्वसनीय प्रतीत हो रहा है
तृतीय व्यक्ति की राय की सुसंगति सम्बन्धी अन्य नियम: ss.47,47.A,48,49,50
1. हस्तलेख से सम्बंधित राय: s.47
(i) जहाँ न्यायालय को यह राय समिति करनी है कि कोई दस्तावेज किस व्यक्ति द्वारा लिखित पर हस्ताक्षारित है वहाँ उस व्यक्ति की राय सुसंगत होगी जो सम्बंधित व्यक्ति के हस्तलेख से परिचित है
(ii) कोई व्यक्ति, दूसरे व्यक्ति के हस्तलेख से परिचित कहा जाता है
(a) जबकि उससे सम्बंधित व्यक्ति को लिखते हुये देखा है या
(b) जबकि उससे सम्बंधित व्यक्ति द्वारा लिखे गये दस्तावेजो की प्राप्त किया है, स्वयं द्वारा लिखे गये दस्तावेजो की प्राप्त किया है स्वयं द्वारा लिखे गये दस्तावेजो के उत्तर में या,
(c) जबकि कारोबार के सामान्य अनुक्रम में सम्बंधित व्यक्ति द्वारा लिखे गये दस्तावेज उसके समक्ष प्रस्तुत किये जाते रहे है।
2. प्रमाणकर्ता प्राधिकारी की राय इलेक्ट्रोनिक हस्ताक्षर के सम्बन्ध में: sec 47-A
(i) जबकि न्यायालय को किसी व्यक्ति के इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर के सम्बन्ध में राय निर्मित करनी हो तब इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर प्रमाणपत्र जारी करने वाले अभिप्रमारण प्राधिकरण की राय सुसंगत होगी
(ii) धारा 47-A के अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर, अभिप्रमाण प्राधिकारी तथा इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर अभिप्रमाणपत्र का वही अर्थ है जो सूचना प्रौधोगिकी अधि. 2000 की धारा 7 में दिया गया है।
3. अधिकार या रुढ़ि के अस्तित्व के सम्बन्ध में उस व्यक्ति की राय सुसंगत है जिसे उसके अस्तित्व का ज्ञान होना संभाव्य है: sec. 48
(i) जबकि न्यायालय को किसी सामान्य रुढ़ि या प्रथा के अस्तित्व के सम्बन्ध में राय समिति करनी हो तब उस व्यक्ति की राय सुसंगत होगी जिसे ऐसी रुढ़ि या प्रथा का ज्ञान होना संभाव्य हो।
(ii) सामान्य रुढ़ि या अधिकार में व्यक्तियों के बड़े वर्ग के अधिकार या रुढ़ि शामिल है।
4. विशेष ज्ञान के साधन संपन्न व्यक्ति को राय की सुसंगति: sec. 49
(i) धारा 49 वहाँ आकर्षित होती है जहाँ न्यायालय को निम्नलिखित के सम्बन्ध में राय निर्मित करनी है।
(a) व्यक्तियों के निकाय या परिवार के प्रचलन तथा मत
(b) किसी धार्मिक या पूर्त संस्था के गठन तथा प्रशासन
(c) किसी विशेष जनपद या वर्ग विशेष के व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त शब्दों एव पदों के अर्थ
(ii) उपरोक्त के सम्बन्ध में ऐसे व्यक्तियों की राय सुसंगत हैं जो ज्ञान के विशेष साधन रखते है।
5. संबंधों के बारे में ज्ञान विशेष साधन संपन्न व्यक्तियों की राय: sec.50
(i) धारा 50 वहाँ आकर्षित होती है जहाँ किन्ही दो व्यक्तियों के मध्य संबंधों के बारे में न्यायालय को राय निर्मित करनी है।
(ii) ऐसे मामले में उस परिवार के सदस्य या ज्ञान के विशेष साधन संपन्न व्यक्ति की राय सुसंगत होगी।
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Lecture-9
विशेषज्ञ की राय का साक्ष्य
ss.45-51
P.T Quest।on
- विशेषज्ञों की राय से सम्बन्धित तथ्यों का प्रावधान किया गया है-
(a) धारा 45
(b) धारा 46
(c) धारा 47
(d) धारा 48
- इलेक्ट्रानिक साक्ष्य के परीक्षक का मत सम्बन्धित प्रावधान अंतःस्थापित किया गया है-
(a) धारा 45 क
(b) धारा 46 ख
(c) धारा 47 ग
(d) उपरोक्त मे से कोई नहीं
- हस्तलेख के बारे में राय कब सुसंगत है-
(a) धारा 47
(b) धारा 48
(c) धारा 49
(d) धारा 50
- अधिकार या रूढ़ि के अस्तित्व के बारे में राय सुसंगत होती है-
(a) धारा 48, धारा 15, धारा 32 खण्ड (6)
(b) धारा 48, धारा 13, धारा 32 खण्ड (4)
(c) धारा 48, धारा 32 खण्ड (3)
(d) धारा 48, धारा 32 खण्ड (7)
- नातेदारी के बारे में राय की सुसंगति का प्रावधान दिया गया है-
(a) धारा 48
(b) धारा 49
(c) धारा 50
(d) धारा 51
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LECTURE – 10
EVIDENCE
मौखिक साक्ष्य के विषय में
अध्याय- 4 [sec. 59, 60]
MAINS -QUESTIONS
- मौखिक साक्ष्य समस्त अवस्थाओं में प्रत्यक्ष ही होनी चाहिए इस नियम की व्याख्या करे।
- अनुश्रुत साक्ष्य से आप क्या समझते है इसके साक्ष्यात्मक महत्व का विश्लेषण करे।
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Lecture-10
मौखिक साक्ष्य के विषय में
अध्याय- 4 [sec. 59, 60]
सामान्य:
1. अधिनियम में तीन भाग है दूसरा भाग सबूत पर है इस भाग का विस्तार धारा 56-100 तक है
2. भाग 2 [धारा 56-100] में चार अध्याय है।
(i) अध्याय-3 [धारा 56-58] ऐसे तथ्य हैं जिनका सिद्ध किया जाना आवश्यक नहीं है
(ii) अध्याय-4 [धारा 59 तथा 60] मौखिक साक्ष्य
(iii) अध्याय-5 [धारा 61-90A] दस्तावेजी साक्ष्य
(iv) अध्याय-6 [धारा 91-100] दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा मौखिक साक्ष्य का अपवर्जन
मौखिक साक्ष्य: (धारा 3)
1. साक्ष्य वह सामग्री या साधन है जिससे किसी न्यायिक कार्यवाही में किसी तथ्य का अस्तित्व या अनअस्तित्व साबित किया जाता है।
2. साक्ष्य पद अधिनियम की धारा-3 में परिभाषित है। परिभाषा समावेशी अर्थात् व्याप्त है। धारा 3 के अनुसार-
“साक्ष्य” शब्द से अभिप्रेत है, और उसके अंतर्गत आते हैं-
(1) वे सभी कथन (बयान) जिनके जाचाधीन तथ्य के विषयों के सम्बन्ध में न्यायालय अपने सामने साक्षियों द्वारा किये जाने की अनुज्ञा देता है या अपेक्षा करता है; इसे कथन मौखिक साक्ष्य कहलाते हैं;
(2) न्याय के निरिक्षण के लिए पेश की गयी सब दस्तावेजे जिनमें इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख शामिल है। ऐसी दस्तावेजें दस्तावेजी साक्ष्य कहलाती है।
3. धारा -3 में दी गयी उपरोक्त परिभाषा बहुत संतोषजनक नहीं है यह साक्ष्य की प्रकृति उसकी उपयोगिता तथा उसके महत्व के सम्बन्ध में मौन है। यह परिभाषा कम तथा साक्ष्य के प्रकारों का उल्लेख अधिक करती है।
मौखिक साक्ष्य की सहायता सम्बन्धी नियम: sec. 59, 60
1. मौखिक साक्ष्य से समस्त तथ्य सिद्ध किये जा सकते हैं सिवाय-
(i) दस्तावेज की अंतरवस्तु या
(ii) इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख की अंतरवस्तु
2. मौखिक स्वीकृतियां भी मौखिक साक्ष्य ही है मौखिक स्वीकृतियों की सुसंगति सम्बंधित नियम धारा 22 तथा 22 A में देखे गये हैं।
3. दस्तावेज की अंतरवस्तु के सम्बन्ध में मौखिक स्वीकृतियां विसंगत हैं सिवाय निम्नलिखित मामलों में-
(i) जबकि दस्तावेज की असलियत प्रश्नगत हो तथा
(ii) जबकि दस्तावेज की अंतरवस्तु का द्वितीयक साक्ष्य अनुभव हो [धारा 22
4. इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख की अंतरवस्तु के सम्बन्ध में मौखिक स्वीकृतियां विसंगत है सिवाय- जबकि इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख की असलीयत प्रश्नगत हो [धारा 22-A]
5. मौखिक साक्ष्य प्रत्येक मामलों में चाहे वे जो भी हो प्रत्यक्ष ही होना चाहिए दुसरे शब्दों में, परोक्ष साक्ष्य मौखिक साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होगा यह नियम अनुश्रुत साक्ष्य के अपवर्जन का नियम कहलाता है। यह नियम साक्ष्य विधि का मौखिक नियम है किन्तु यह पूर्ण नियम नहीं है। यह नियम कुछ मान्य अपवादों के अधीन है।
6. मौखिक साक्ष्य प्रत्येक मामलों में चाहे वे जो भी हो प्रत्येक होना चाहिए इसका अर्थ है-
(i) यदि वह किसी देखे जा सकने वाले तथ्य के बारे में है, तो वह ऐसे साक्षी का ही साक्ष्य होगा जो कहता है कि उसने उसे देखा;
(ii) यदि वह किसे सुने जा सकने वाले तथ्य के बारे में है तो वह ऐसे साक्षी का है साक्ष्य होगा जो कहता है कि उसने उसे सुना;
(iii) यदि वह किसी ऐसे तथ्य के बारे में है जिसका किसी अन्य इन्द्रिय द्वारा या था किसी अन्य रीति से बोध हो सकता था, तो वह ऐसे साक्षी का ही साक्ष्य होगा जो कहता है कि उसने उसका बोध उस इंद्रिय द्वारा या उस रीति से किया;
(iv) यदि वह किसी राय के, या उन आधारों के जिन पर वह राय धारित है, बारे में है, तो वह उस व्यक्ति का ही साक्ष्य होगा जो वह राय उन आधारों पर धारण करता है;
7. किसी व्यक्ति विशेषज्ञ की राय जो सामान्यतः विक्रय के लिए प्रस्थापित की जाने वाली पुस्तक में अभिव्यक्त है और वे आधार जिन पर ऐसी राय आधारित है यदि रचयिता
(i) मर गया है या
(ii) वह साक्ष्य देने के लिए असमर्थ हो गया है या
(iii) मिल नहीं सकता है या
(iv) उसका बुलाया जाना समय तथा धन की दृष्टि से अयुक्तियुक्त: है।
अनुश्रुत साक्ष्य के अपवर्जन का नियम:
1. अनुश्रुत साक्ष्य के अपवर्जन का नियम धारा 60 साक्ष्य अधिनियम में अन्तर्निहित है धारा 60 के अनुसार-
मौखिक साक्ष्य प्रत्येक मामलों मे, चाहे वह
जो भी हो प्रत्येक ही होना चाहिए,
धारा 60 के उपबंधों से स्पष्ट है कि मौखिक साक्ष्य परोक्ष नहीं होना चाहिये दुसरे शब्दों में, परोक्ष साक्ष्य मौखिक साक्ष्य (अनुश्रुत साक्ष्य) साक्ष्य से ग्राह्य नहीं होगा। यह नियम अनुश्रुत साक्ष्य के अपवर्जन का नियम कहलाता है।
2. नियम का तार्किक आधार:
(i) न्यायालय के समक्ष सर्वश्रेष्ठ साक्ष्य आना चाहिये ये बात नीतिगत रूप से तथा विधिक रूप से भी औचित्यपूर्ण है।
(ii) अनुश्रुत साक्ष्य की सहायता न्यायालय के समक्ष सर्वश्रेष्ठ साक्ष्य का आगमन बाधित कर सकता है (निम्न कोटि के साक्ष्य की ग्राह्यता न्याय हित में नहीं होता)
3. अपवाद:
(i) अनुश्रुत साक्ष्य के अपवर्जन का नियम साक्ष्य विधि का एक मौखिक नियम है, कि किन्तु यह विधि का पूर्ण नियम नहीं है। यह नियम निम्नलिखित लि. अपवादों के अधीन है-
(a) रेसजेस्टे का सिद्धांत ——————————— sec. 6
(b) स्वीकृतियां तथा संस्वीकृतियाँ ———————- sec. 21
(c) धारा 32 के अंतर्गत सुसंगत तथ्य —————- मृत्युकालिक कथन सहित
(d) पूर्व कार्यवाहियों के साक्ष्य ————————– sec. 33
(e) विशेषज्ञ की राय तथा उसकी राय के आधार जो उसके ग्रन्थ में अभिव्यक्त हो ——– sec. 60 का परन्तुक
4. सक्ष्यिक बल:
(i) अनुश्रुत साक्ष्य का सक्ष्यिक बल दुर्बल होता है।
(ii) दुर्बलता के कारण:
(a) यह शपथ पर नहीं किया जाता है अत: इसकी सव्यता प्रतिपरीक्षा द्वारा जांचे जाने योग्य नहीं है।
(b) इसकी सहायता विचारण या जाँच को अनावश्यक रूप से खींच सकता है।
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PRE QUESTIONS
- मौखिक साक्ष्य के विषय में किस अध्याय मे उल्लिखित है-
(a) अध्याय तीन
(b) अध्याय चार
(c) अध्याय पाँच
(d) अध्याय सात
- मौखिक साक्ष्य प्रत्यक्ष होना चाहिए अर्थात्
(a) यदि वह किसी देखे जा सकने वाले तथ्य के बारे में है, तो वह ऐसे साक्षी का ही साक्ष्य होगा जो कहता है कि उसने उसे देखा
(b) यदि वह किसी सुने जा सकने वाले तथ्य के बारे में है, तो वह ऐसे साक्षी का ही साक्ष्य होगा जो कहता है कि उसने उसे सुना;
(c) यदि वह किसी राय के, या उन आधारों के, जिन पर वह राय धारित है, बारे में है, तो वह उस व्यक्ति का ही साक्ष्य होगा जो वह राय उन आधारों पर धारण करता है;
(d) उपरोक्त सभी
- अनुश्रुत साक्ष्य के नियम का अपवर्जन दिया गया है-
(a) धारा 58
(b) धारा 59
(c) धारा 60
(d) धारा 61
- दस्तावेजों या इलेक्ट्रानिक अभिलेखों की अन्तर्वस्तु के सिवाय सभी तथ्य
(a) दस्तावेजों साक्ष्य द्वारा साबित किए जा सकेगें
(b) मौखिक साक्ष्य द्वारा साबित किए जा सकेगें
(c) प्राथमिक साक्ष्य द्वारा साबित किए जा सकेगें
(d) द्वितीयक साक्ष्य द्वारा साबित किए जा सकेगें
- मौखिक साक्ष्य के विषयों में निम्नलिखित में किस धारा में उपबन्धित है-
(a) धारा 59,60
(b) धारा 61,62
(c) धारा 64,65
(d) धारा 70,71
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LECTURE – 11
EVIDENCE
दस्तावेजी साक्ष्य के विपक्ष में
अध्याय-v [ss. 61-90.A]
MAINS -QUESTIONS
- प्राथमिक साक्ष्य एवम् द्वितीयक साक्ष्य से आप क्या समझते है द्वितीयक साक्ष्य किन परिस्थितियों में दी जा सकती है।
- लोक दस्तावेज एवम् प्राइवेट दस्तावेज के संदर्भ में आप क्या समझते है।
- जब किसी न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष अभियुक्त द्वारा की गई संस्वीकृति को अभिलिखित किया जाता है, तब ऐसी संस्वीकृति की उपधारणा पर क्या प्रभाव होगा?
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Lecture-11
दस्तावेजी साक्ष्य के विपक्ष में
अध्याय-v [ss. 61-90.A]
सामान्य:
1. अधि. तीन भागों में विभक्त है द्वितीय भाग [धारा 56-100] सबूत के बारे में है। द्वितीय भाग में निम्नलिखित ।V अध्याय है।
(i) अध्याय ।।। [sec. 56-58]———-ऐसा तथ्य जिन्हें सिद्ध करना आवश्यक नहीं है
(ii) अध्याय ।V [sec. 59-60]———मौ. साक्ष्य के विषय में
(iii) अध्याय V [sec. 61-90A]——-दस्तावेजी साक्ष्य के विषय में
(iv) अध्याय V। [sec.91-100]——–दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा मौ. साक्ष्य के अपवर्जन केविषय में
2. अध्याय V [sec. 61—90A] की योजना:
(i) परिभाषायें:
(a) प्राथमिक साक्ष्य – धारा 62
(b) द्वितीयक साक्ष्य – धारा 63
(c) लोक दस्तावेज – धारा 74
(d) निजी दस्तावेज – धारा 75
1. प्राथमिक साक्ष्य: sec. 62.
प्राथमिक साक्ष्य से न्यायालय के निरिक्षण के लिए पेश की गई दस्तावेज स्वय अभिप्रेत है
स्पष्टीकरण 1- जहाँ कि कोई दस्तावेज कई मूल प्रतियों में निष्पादित है, वहाँ हर एक मूल प्रति उस दस्तावेज का प्राथमिक साक्ष्य है।
जहाँ की कोई दस्तावेज प्रतिलेख में निष्पादित है और एक प्रतिलेख पक्षकारों में से केवल एक पक्षकार या कुछ पक्षकारों द्वारा निष्पादित किया गया है वहाँ हर एक प्रतिलेख उन पक्षकारों के विरुद्ध, जिन्होंने उसका निष्पादन किया है, प्राथमिक साक्ष्य है।
स्पष्टीकरण 2- जहाँ की अनेक दस्तावेजें एकरूपात्मक प्रक्रिया द्वारा बनाई गई है, वहाँ उनमें से हर एक शेष सबकी अंतरवस्तु का प्राथमिक साक्ष्य है किन्तु जहाँ की वे सब किसी सामान्य मूल की प्रतियाँ है, वहाँ वे मूल की अंतरवस्तु का प्राथमिक साक्ष्य नहीं है।
2. द्वितीयक साक्ष्य: sec. 63
द्वितीयक साक्ष्य से अभिप्रेत है और उसके अंतर्गत आते है –
1. एतस्मिन पश्चात अंतर्विष्ट उपबंधों के अधीन दी गई प्रमाणित प्रतियाँ
2. मूल से ऐसी यांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा, जो प्रक्रियाएं स्वयं ही प्रति की शुद्धता सुनिश्चित करती है, बनाई गई प्रतियाँ तथा ऐसी प्रतियों से तुलना की हुई प्रतिलिपियां
3. मूल से बनाई गई या तुलना की गई प्रतियाँ
4. उन पक्षकारों के विरुद्ध, जिन्होने उन्हें निष्पादित नहीं किया हैं दस्तावेजों के प्रतिलेख
5. किसी दस्तावेज की अंतरवस्तु का उस व्यक्ति द्वारा जिसने स्वयं उसे देखा हैं दिया हुआ मौखिक वृतांत
3. लोक दस्तावेजें: sec. 74
निम्नलिखित दस्तावेजें लोक दस्तावेजें है-
1. वे दस्तावेजें जो-
(i) प्रभुतासंपन्न प्राधिकारी के,
(ii) शासकीय निकायों और प्राधिकारणों के तथा
(iii) भारत के किसी भाग के या कामनवेल्थ के या किसी विदेश के विधायी, न्यायिक तथा कार्यपालक लोक आफिसरों के कार्यों के रूप में या कार्यों के अभिलेख के रूप में है
2. किसी राज्य में रखे गये प्राइवेट दस्तावेजों के लोक अभिलेख
4. प्राइवेट दस्तावेजें: sec. 75
अन्य सभी दस्तावेजें प्राइवेट हैं
दस्तावेज की अंतरवस्तु का सिद्ध किया जाना:
1. दस्तावेज की अंतरवस्तु की या तो प्राथमिक साक्ष्य से या द्वितीयक साक्ष्य से सिद्ध किया जा सकेगा [sec. 61]
2. सामान्यत: दस्तावेज की अंतरवस्तु को प्राथमिक साक्ष्य द्वारा सिद्ध किया जाना चाहिये अपवाद स्वरुप दस्तावेज की अंतरवस्तु को, धारा 65 की परिधि में आने वाले मामलों में द्वितीयक साक्ष्य से भी सिद्ध किया जा सकता है [sec. 64]
3. द्वितीयक साक्ष्य प्रस्थापित करने वाले पक्ष को धारा-104 के अनुसार सिद्ध भारिता का अनुसरण करना होगा। न्यायालय, उचित मामलों में स्वविवेक से धारा 104 में वर्णित नियम शिथिल कर सकता है। [धारा 136 का पैरा 1]
4. दस्तावेज की अंतरवस्तु का द्वितीयक साक्ष्य धारा- 65 के अनुसार दिया जा सकेगा
दस्तावेज की अंतरवस्तु के सम्बन्ध में मौखिक स्वीकृतियां विसंगत हैं सिवाय-
(i) जबकि दस्तावेज की असलियत प्रश्नगत हो या
(ii) जबकि द्वितीय साक्ष्य दिया जा सकता है [sec. 22]
इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख की अंतरवस्तु का सिद्ध किया जाना: sec. 65A, 65B
1. धारा 2(1)(t), ।T. Act 2000 इलेक्टॉनिक अभिलेख पद को परिभाषित करती है।
2. इलेक्टॉनिक अभिलेख की अंतरवस्तु को मौखिक साक्ष्य से सिद्ध नहीं किया जा सकता है [sec. 59]
3. इलेक्टॉनिक अभिलेख की अंतरवस्तु के सम्बन्ध में मौखिक स्वीकृतियां विसंगत है, सिवाय जबकि इलेक्टॉनिक अभिलेख की असलियत प्रश्नगत हो [sec. 22A]
4. इलेक्टॉनिक अभिलेख की अंतरवस्तु को धारा 65B के अनुसार सिद्ध किया जा सकता है[sec. 65A]
5. धारा 65B के अनुसार इलेक्टॉनिक अभिलेख की अंतरवस्तु को कंप्यूटर आउटपुट द्वारा सिद्ध किया जा सकता है यह आवश्यक है कि कंप्यूटर आउटपुट धारा 65B (2) की अपेक्षा को पूर्ण कर रहा हो कंप्यूटर आउटपुट प्रलक्षित दस्तावेज गठित करता है।
लोक दस्तावेज का सबूत: sec. 77
1. लोक दस्तावेज धारा 74 में परिभाषित है।
2. लोक दस्तावेज की अंतरवस्तु को प्रमाणित प्रतिलिपि द्वारा सिद्ध किया जा सकता है [sec. 77]
3. प्रमाणित प्रतिलिपि द्वितीयक साक्ष्य है [sec. 63(1)]
4. प्रमाणित प्रतिलिपि धारा 76 के अनुसार प्राप्त की जा सकती है।
5. धारा 78 में कुछ लोक दस्तावेजों को निर्दिष्ट किया गया है इस धारा में निर्दिष्ट लोक दस्तावेजों को धारा 78 में वर्णित नियमों के अनुसार सिद्ध किया जा सकता है।
दस्तावेज तथा इलेक्टॉनिक अभिलेख के सम्बन्ध में प्रकल्पनाये:
1. अध्याय 5 दस्तावेजों तथा इलेक्टॉनिक अभिलेखों के सम्बन्ध में कुछ प्रकल्पनाये प्रावधानित करता है यह प्रकल्पनाये खण्डनीय प्रकल्पनाये है दस्तावेज के सम्बन्ध में प्रकल्पनाये प्रावधानित करती है इस प्रकार प्रकल्पनाये से सम्बंधित कुल 18 धाराये है

2. दस्तावेज से सम्बंधित प्रकल्पनाये: sec. 79-85 तथा 89, 86-88, 90
(i) न्यायालय प्रकल्पना करेगा: sec. 79, 85, 89
(a) प्रमाणित प्रतिलिपि असली है [sec. 79]
(b) साक्ष्य अभिलिखित करने वालों दस्तावेज असली है [sec. 80]
(c) शासकीय राजपत्र लन्दन राजपत्र तथा समाचार पत्रों तथा जनरल असली है [sec. 81
(d) कुछ मुद्राओ टिकटों तथा हस्ताक्षर के असली होने की परिकल्पना [sec. 82]
(e) केंद्र या राज्य शासन के प्राधिकाराधीन निर्मित मानचित्र या योजनायें सटीक है [sec. 83]
(f) शासकीय प्राधिकरण के अधीन प्रकाशित विधि ग्रन्थ असली है [sec. 84]
(g) पावर ऑफ़ अटर्नी का निष्पादन तथा अभिप्रमाणन सम्बन्धी प्रकल्पना [sec. 85]
(h) नोटिस के बावजूद प्रस्तुत नहीं किये गये दस्तावेज के सम्यक अभिप्रमाणन तथा निष्पादन के सम्बन्ध में प्रकल्पना [sec. 89]
(ii) न्यायालय प्रकल्पना कर सकेगा: sec. 86-88, 90
(a) विदेशी न्यायिक अभिलेख की प्रमाणित प्रतिलिपियाँ असली तथा सटीक है [sec. 86]
(b) पुस्तकों मानचित्रों तथा चार्ट के लेखक तथा प्रकाशक तथा प्रकाशन स्थल तथा समय सम्बन्धी प्रकल्पना [sec. 87]
(c) तार सन्देश के सम्बन्ध में प्रकल्पना – धारा 88
(d) 30 वर्ष पुराने दस्तावेजों के सम्बन्ध में प्रकल्पना- धारा 90
3. इलेक्टॉनिक अभिलेखों के सम्बन्ध में प्रकल्पनाये: sec. 81A, 85A, 85B, 85C, 88A, 90A
(i) न्यायालय प्रकल्पना करेगा: sec. 81A, 85A, 85B, 85C
(a) इलेक्टॉनिक गजट तथा इलेक्टॉनिक अभिलेख असली है [sec. 81A]
(b) इलेक्टॉनिक करार के सम्बन्ध में प्रकल्पना [sec. 85A]
(c) इलेक्टॉनिक अभिलेख तथा इलेक्टॉनिक हस्ताक्षर के सम्बन्ध में प्रकल्पना [sec 85B]
(d) इलेक्टॉनिक हस्ताक्षर प्रमाणपत्र के सम्बन्ध में प्रकल्पना [sec. 85c]
(ii) न्यायालय प्रकल्पना कर सकेगा: sec. 88A, 90A
(a) इलेक्टॉनिक सन्देश के सम्बन्ध में प्रकल्पना [sec. 88A]
(b) इलेक्टॉनिक अभिलेखों [5 वर्ष पुराने] के सम्बन्ध में प्रकल्पना [sec. 90A]
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Lecture-11
अध्याय-v [ss. 61-90.A]
दस्तावेजी साक्ष्य के विपक्ष में
PREE QUESTION
- दस्तावेज की अंन्तर्वस्तु साबित की जा सकेगी-
(a) प्राथमिक साक्ष्य द्वारा
(b) द्वितीयक साक्ष्य द्वारा
(c) या तो प्राथमिक साक्ष्य द्वारा या द्वितीयक साक्ष्य द्वारा
(d) उपरोक्त मे से कोई नहीं
- प्राथमिक साक्ष्य से तात्पर्य है-
(a) न्यायालय के निरीक्षण के लिए पेश की गई दस्तावेज स्वयं अभिप्रेत है
(b) न्यायालय के अनिरीक्षण के लिए पेश की गई दस्तावेज स्वयं अभिप्रेत है
(c) न्यायालय के अनिरीक्षण के लिए पेश की गई दस्तावेज स्वयं अभिप्रेत नहीं है
(d) न्यायालय के निरीक्षण के लिए पेश की गई दस्तावेज स्वयं अभिप्रेत नहीं है
- जहाँ कि कोई दस्तावेज कई मूल प्रतियों में निष्पादित है वहाँ हर एक मूल प्रति उस दस्तावेज का-
(a) प्राथमिक साक्ष्य है
(b) द्वितीयक साक्ष्य है
(c) प्राथमिक एवम् द्वितीयक साक्ष्य
(d) न्यायालय के विवेक पर है
- द्वितीयक साक्ष्य की परिभाषा दी गई है-
(a) धारा 61
(b) धारा 62
(c) धारा 63
(d) धारा 64
- द्वितीयक साक्ष्य अभिप्रेत है उसके अन्तर्गत आते है-
(a) दस्तावेज यदि उसे स्वयं न्यायालय के निरीक्षण के लिए पेश किया जाय
(b) जहाँ कोई दस्तावेज कई मूल प्रतियों में बनाया जाय, तब प्रत्येक ऐसी प्रति दस्तावेज का प्राथमिक साक्ष्य है।
(c) जहाँ कई दस्तावेज प्रतिलेख में बनाए गए हों और एक प्रतिलेख पर एक ने और दूसरे पर दूसरे ने हस्ताक्षर किए हों तो एक प्रतिलेख उस पक्षकार के विरुद्ध प्राथमिक साक्ष्य होगा, जिसने उस पर हस्ताक्षर किए हों।
(d) किसी दस्तावेज की अन्तर्वस्तु का उस व्यक्ति द्वारा, जिसने स्वयं उसे देखा है, दिया हुआ मौखिक वृत्तान्त
- द्वितीयक साक्ष्य में निम्नलिखित शामिल है-
(a) मूल से ऐसी यान्त्रिक प्रक्रियाओं द्वारा, जो प्रक्रियाएँ स्वयं ही प्रति की शुद्धता सुनिश्चित करती हैं, बनाई गई प्रतियाँ तथा ऐसी प्रतियों से तुलना की हुई प्रतिलिपियाँ
(b) मूल से बनाई गई या तुलना की गई प्रतियाँ
(c) किसी दस्तावेज की अन्तर्वस्तु का उस व्यक्ति द्वारा, जिसने स्वयं उसे देखा हैं, दिया हुआ मौखिक वृत्तान्त
(d) उपरोक्त सभी
- वे अवस्थाएँ जिनमें दस्तावेजों के संबध में द्वितीयक साक्ष्य दिया जा सकेगा-
(a) जबकि मूल इस प्रकृति का है कि उसे आसानी से स्थानान्तरित नहीं किया जा सकता।
(b) जबकि धारा 74 के अन्तर्गत एक लोक दस्तावेज है
(c) जब मूल ऐसी दस्तावेज है जिसकी प्रमाणित प्रतिग्रहण का साक्ष्य में दिया जाना इस अधिनियम द्वारा या भारत में प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा अनुज्ञात है,
(d) उपरोक्त सभी
- इलैक्ट्रानिक अभिलेख की ग्राह्यात के सबंध में प्रावधान है-
(a) धारा 65 क
(b) धारा 65 ख
(c) धारा 65 ग
(d) धारा 65 घ
- लोक दस्तावेजे है-
(a) प्रभुतासम्पन्न प्राधिकारी के
(b) शासकीय निकायों और अधिकरणों के
(c) किसी राज्य में रखे गये प्राइवेट दस्तावेजों के लोक अभिलेख
(d) उपरोक्त सभी
- इलैक्ट्रानिक करार के बारे में उपधारणा दी गई है-
(a) धारा 85
(b) धारा 85 क
(c) धारा 85 ख
(d) धारा 85 ग
- इलैक्ट्रानिक रूप में राजपत्रों के बारे में उपधारणा दी गई है-
(a) धारा 81
(b) धारा 81 क
(c) धारा 85 ख
(d) धारा 85 ग
- पुस्तक, मानचित्र, चार्टों आदि के बारे में उपधारणा दी गई है-
(a) धारा 86
(b) धारा 87
(c) धारा 88
(d) धारा 89
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LECTURE – 12
EVIDENCE
दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा मौखिक साक्ष्य के अपवर्जन के विषय में
अध्याय-vi [sec. 91-100]
MAINS -QUESTIONS
- दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा मौखिक साक्ष्य के अपवर्जन के नियम को समझाइये।
- प्रत्यक्ष संदिग्धता तथा अप्रत्यक्ष संदिग्धता से आप क्या समझते है।
- B को A 3,000 रुपये या 5,000 रुपये में एक घोड़ा बेचने का लिखित करार करता है। यह दर्शित करने के लिए कि कौन सा मूल्य दिया जाना है, क्या साक्ष्य दिया जा सकता है?
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Lecture-12
अध्याय-vi [sec. 91-100]
सामान्य:
1. ch-vi [sec. 91-100] दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा मौखिक साक्ष्य के अपवर्जन से सम्बंधित है अध्याय-6 की योजना का सम्पेक्षण निम्नवत हैI
(i) संविदा अनुसार तथा संपत्ति के अन्य व्यय की शर्तों [दस्तोवेजी रूप में] का साक्ष्य ————————–sec. 91
(ii) मौखिक करार या मौखिक कथन के साक्ष्य का अपवर्जन ——————————————————-sec. 92 r/w 99
(iii) प्रत्यक्ष संदिग्धता —————————————sec. 93, 94
(iv) अप्रत्यक्ष संदिग्धता —————————————–sec. 95, 96, 97
(v) विदेशी, अप्रचलित तकनीकी तथा स्थानीय शब्दों तथा अभिव्यक्तियों का अर्थ दर्शाने हेतु साक्ष्य —————–sec. 98
(vi) व्यावृत्ति खण्ड ——————————————————sec. 100
शर्तों तथा विषयों का साक्ष्य: sec. 91 r/w 144
1. निम्नलिखित को सिद्ध करने हेतु दस्तावेजी साक्ष्य ही दिया जा सकेगा
(i) संविदा, अनुदान या संपत्ति के अन्य व्ययन की शर्तें [जिन्हें दस्तावेजी रूप दिया गया है]
(ii) विधिक अपेक्षा अनुसार दस्तावेजी रूप में उपलब्ध विषय
2. धारा 91 का सैधांतिक आधार यह है की जो कुछ भी लेखबद्ध है उसे लेख द्वारा ही सिद्ध किया जाना चाहिए काशीनाथ बनाम चंडीचरण के प्रकरण में pc ने प्रेक्षित किया कि-
लिखित विलेख के प्रतिस्थापन के रूप में प्रयोग हेतु या लिखित के खंडन या परिवर्तन हेतु उस विलेख से अन्यथा किसी साक्ष्य का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। लिखित विलेख अपनी प्रकृति से मौखिक साक्ष्य की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय होते है।
3. स्टीफन के अनुसार लिखित चीज को लेख से ही प्रस्तुत किया जाना चाहिये अन्यथा लेखन का उद्देश्य ही विफल हो जायेगा लेखन के दो उचित उद्देश्य होते हैI
(i) लिखित सामग्री को स्मृति में बनाये रखना तथा
(ii) लिखित चीज का स्थाई साक्ष्य प्रस्तुत करना
अत: यदि संभव हो तो स्वमं दस्तावेज ही निरिक्षण हेतु प्रस्तुत किया जाना चाहिए अंतिम रूप से लिखे गये दस्तावेज अंतिम ही समझे जाने चाहिए उन्हें मौखिक शब्दों द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता हैI
4. अपवाद
(i) लोक अधिकारी की नियुक्ति (लिखित) यह दर्शा कर सिद्ध की जा सकेगी कि उस हैसियत में कार्य किया गया हैI लिखित नियुक्ति सिद्ध करना आवश्यक नहीं है [अपवाद-1]
(ii) प्रोबेट हेतु स्वीकृत वसीयत प्रोबेट द्वारा सिद्ध की जा सकेगी द्वितीयक साक्ष्य होते हुए भी प्रोबेट मूल वासियत से अधिक वजनदार समझी जाती है [अपवाद 2]
5. स्पष्टीकरण:
(i) शर्त चाहे एक दस्तावेज में या अधिक दस्तावेज में अंतरविष्ट हो दोनों स्थितियों में समानत: लागू होगी [स्पष्टीकरण-1 दृष्टान्त(a) तथा (b)
(ii) एक से अधिक मूल होने पर कोई एक सिद्ध करना काफी होगा सभी को सिद्ध करना आवश्यक नहीं होगा [स्पष्टीकरण 2, दृष्टान्त(c)
(iii) शर्तों से अन्यथा किसी तथ्य को मौखिक साक्ष्य से सिद्ध किया जा सकेगा [स्पष्टीकरण-3 दृष्टान्त(d) तथा (e)
6. धारा-144 के अनुसार परीक्षाधीन साक्षी से यह पूछा जा सकेगा कि क्या जिस संविदा अनुसार या संपत्ति के अन्य व्ययनन का वह साक्ष्य दे रहा है किसी दस्तावेज में अंतरविष्ट हैI यदि साक्षी यह कहता है की उक्त संविदा अनुदान या अन्य व्ययन लेखबद्ध है तब विपक्षी साक्षी द्वारा दिए जा रहे साक्ष्य के विरुद्ध या आपत्ति कर सकेगा यह मांग की जा सकेगी कि जब तक दस्तावेज या द्वितीयक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर दिया जाता है तब तक साक्षी को द्वितीयक साक्ष्य न दिया जाये उपरोक्त नियम ऐसे दस्तावेज के सम्बन्ध में भी लागू होगा जिसके सम्बन्ध में न्याया. को यह राय है कि उसे प्रस्तुत किया जाना चाहियेI
मौखिक करार या मौखिक कथन के साक्ष्य का अपवर्जन: sec. 92 r/w sec. 99
1. जहाँ ऐसी संविदा अनुदान या संपत्ति के अन्य व्ययन के निबंधनों को या कोई विषय जिसका लेखबद्ध किया जाना विधित: अपेक्षित है धारा 91 के अनुसार सिद्ध की जा चुकि हो, वहाँ उन्हें खंडित, परिवर्तित करने या उनमें कुछ जोड़ने या घटाने के प्रयोजनों हेतु मौखिक करार या मौखिक कथन का साक्ष्य नहीं दिया जा सकेगाI
2. धारा 92 निषेधात्मक है यह दस्तावेज की शर्तों के खंडन या परिवर्तन आदि के लिये मौखिक करार या मौखिक कथन के अपवर्जन का प्रावधान करती हैI
3. धारा 92 के साथ 6 परन्तुक संग्लन है इन परन्तुक में आने वाले मामलों में मौखिक करार या मौखिक कथन का साक्ष्य दिया जा सकेगाI
प्रत्यक्ष संदिग्धता : sec. 93, 94
1. जहाँ दस्तावेज में प्रयुक्त भाषा स्पष्टत: भ्रामक या दोषपूर्ण हो, वहाँ उसका अर्थ दर्शाने हेतु या दोष दूर करने के लिए बाह्य साक्ष्य नहीं दिया जा सकेगा [sec. 93]
धारा 93 प्रकट संदिग्धता [patent ambiguity] के निवारण हेतु बाह्य साक्ष्य [Extrinsic evid] की ग्राह्यता का निषेध करती हैI
2. जहाँ दस्तावेज में प्रयुक्त भाषा स्वयं में स्पष्ट हो तथा वह विधमान तथ्यों पर सटीक रूप से लागू हो रही हो, वहाँ यह दर्शाने हेतु साक्ष्य नही दिया जा सकेगा कि भाषा उन तथ्यों पर लागू होने हेतु आशयित नही थी [धारा 94]
धारा 94 उन मामलों में बाह्य साक्ष्य को अग्राह्य घोषित करती है जिनमें दस्तावेज असंदिग्ध तथा स्पष्ट हैI
बाह्य साक्ष्य की ग्राह्यता: sec. 95, 96, 97
1. धारा 95, 96 तथा 97 में वर्णित मामलों में बाह्य साक्ष्य ग्राह्य होगा यह धाराये लैटिन सुक्ति FALSA DEMONSTRATION NON NOCET [अर्थात दस्तावेज में किया गया मिथ्या कथन दस्तावेज को दूषित नही करता हैI
2. जहाँ दस्तावेज में प्रयुक्त भाषा स्वयं में स्पष्ट हो किन्तु वह विधमान तथ्यों के सन्दर्भ में अर्थहीन हो, वहाँ यह दर्शाने के लिये कि उक्त भाषा विशेष भाव में प्रयुक्त है, बाह्य साक्ष्य दिया जा सकेगा [sec. 95]
3. जहाँ तथ्यों से यह इंगित होता हो कि दस्तावेज में प्रयुक्त भाषा अनेक वस्तुओं या व्यक्तियों में किसी एक पर लागू होने हेतु तात्पर्यित थी तथा वह उन सभी व्यक्तियों या वस्तुओं पर लागू होने हेतु आशयित नही हो सकती थी वहाँ इस तथ्य का साक्ष्य दिया जा सकेगा कि वह किस व्यक्ति या वस्तु पर लागू होने हेतु आशयित थी [sec. 96]
4. जहाँ प्रयुक्त भाषा विधमान तथ्यों के एक समूह पर अशत: लागू हो रही हो तथा अशत: दूसरे विधमान तथ्यों के समूह पर लागू हो रही हो, किन्तु वह ऐसे समूहों में से किसी एक पर ठीक-ठीक लागू न हो रही हो, वहाँ यह दर्शाने हेतु बाह्य साक्ष्य दिया जा सकेगा के उक्त भाषा ऐसे दोनों समूहों में से किस समूह पर लागू होने हेतु तात्पर्यित थी [sec. 97]
शब्दों अभिव्यक्ति तथा संक्षेपाक्षरो का अर्थ दर्शाने हेतु साक्ष्य: sec. 98
1. धारा 98 निम्नलिखित का अर्थ दर्शाने हेतु साक्ष्य देने की अनुमति प्रदान करती है-
(i) विदेशी शब्द
(ii) अप्रचलित शब्द
(iii) तकनीकी शब्द
(iv) स्थानीय तथा प्रांतीय अभिव्यक्तियां
(v) संक्षेपाक्षर
(vi) विशेष भाव में प्रयुक्त शब्द
दस्तावेज के अपक्षकार या ऐसे अपक्षकार के प्रतिनिधि मौखिक साक्ष्य दे सकेंगे: sec. 99
1. धारा 99, समस्त व्यवहारिक प्रयोजनों हेतु धारा 92 तथा 91 का स्पष्टीकरण हैI
2. धारा 99 दस्तावेज के अपक्षाकारों या उनके हित-प्रतिनिधियों को दस्तावेज की शर्तों में परिवर्तन दर्शाने हेतु समकालीन मौखिक करार का साक्ष्य देने की अनुमति देती हैI
व्यावृत्ति खण्ड: sec. 100
1. अध्याय 6 की कोई भी बात वसीयत के निर्वचन के सम्बन्ध में भारतीय उत्तराधिकार के उपबंधों को प्रभावित नही करेगीI
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PRE QUESTIONS
- जहाँ की कोई संविदा कई पत्रों में अन्तर्विष्ट है तो-
(a) किसी एक पत्र को साबित करना होगा
(b) सभी पत्र को साबित करना होगा
(c) उपरोक्त दोनों सही है
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं
- यदि कोई संविदा किसी विनिमय पत्र में अन्तर्विष्ट है तो
(a) उस संविदा को साबित करना होगा
(b) वह विनिमय पत्र साबित करना होगा
(c) उस संविदा एवम् विनिमय पत्र दोनों को साबित करना होगा
(d) उपरोक्त सभी कथन सही है
- यदि विनिमय पत्र तीन परतों में लिखित है तो
(a) तीनों परतों को साबित करना होगा
(b) केवल एक को साबित करना होगा
(c) कोई दो को साबित करना होगा
(d) उपरोक्त सभी
- ख द्वारा दिये गये धन की रसीद ख को क देता है सदाय करने का मौखिक साक्ष्य पेश किया जाता है-
(a) यह साक्ष्य ग्राह्य है
(b) यह साक्ष्य ग्राह्य नहीं है
(c) पक्षकारों के विवेक पर है
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं
- प्रत्यक्ष संदिग्धता से सम्बन्धित प्रावधान दिया गया है-
(a) धारा 93, धारा 94
(b) धारा 95, धारा 96
(c) धारा 97, धारा 98
(d) धारा 99, धारा 100
- सिविल मामलों में रीढ़ की हड्डी कहा जाता है-
(a) धारा 91
(b) धारा 92
(c) धारा 93
(d) धारा 94
- प्रथम संदिग्धता से संबंधित प्रावधान दी गई हैः-
(a) धारा 93, 94
(b) धारा 95, 96
(c) धारा 97, 98
(d) धारा 99, 100
- अप्रव्यक्ष संदिग्धता के मामले में साक्ष्य दिया जा सकता हैः-
(a) कलन सही है
(b) (a) एवं (b) दोनों गलत है
(c) कथन गलत है
(d) इनमें से कोई नही